श्री रामचरितमानस
अयोध्याकाण्ड
द्वितीय सोपान-मंगलाचरण
चौपाई :
*
अजहुँ जासु उर
सपनेहुँ काऊ। बसहुँ
लखनु सिय रामु
बटाऊ॥
राम धाम
पथ पाइहि सोई।
जो पथ पाव
कबहु मुनि कोई॥1॥
भावार्थ:-आज भी
जिसके हृदय में
स्वप्न में भी
कभी लक्ष्मण, सीता, राम तीनों
बटोही आ बसें,
तो वह भी
श्री रामजी के
परमधाम के उस
मार्ग को पा
जाएगा, जिस मार्ग
को कभी कोई
बिरले ही मुनि
पाते हैं॥1॥
*
तब रघुबीर श्रमित
सिय जानी। देखि
निकट बटु सीतल
पानी॥
तहँ बसि
कंद मूल फल
खाई। प्रात नहाइ
चले रघुराई॥2॥
भावार्थ:-तब श्री
रामचन्द्रजी सीताजी को थकी हुई
जानकर और समीप
ही एक बड़ का वृक्ष
और ठंडा पानी
देखकर उस दिन
वहीं ठहर गए।
कन्द, मूल, फल खाकर
(रात भर वहाँ
रहकर) प्रातःकाल स्नान
करके श्री रघुनाथजी
आगे चले॥2॥
श्री राम-वाल्मीकि
संवाद
*
देखत बन सर
सैल सुहाए। बालमीकि
आश्रम प्रभु आए॥
राम दीख
मुनि बासु सुहावन।
सुंदर गिरि काननु
जलु पावन॥3॥
भावार्थ:-सुंदर वन, तालाब और
पर्वत देखते हुए
प्रभु श्री रामचन्द्रजी
वाल्मीकिजी के आश्रम
में आए। श्री
रामचन्द्रजी ने देखा
कि मुनि का
निवास स्थान बहुत
सुंदर है, जहाँ सुंदर
पर्वत, वन और
पवित्र जल है॥3॥
*
सरनि सरोज बिटप
बन फूले। गुंजत
मंजु मधुप रस
भूले॥
खग
मृग बिपुल कोलाहल
करहीं। बिरहित बैर
मुदित मन चरहीं॥4॥
भावार्थ:-सरोवरों में
कमल और वनों
में वृक्ष फूल
रहे हैं और
मकरन्द रस में
मस्त हुए भौंरे सुंदर
गुंजार कर रहे
हैं। बहुत से
पक्षी और पशु
कोलाहल कर रहे
हैं और वैर से रहित
होकर प्रसन्न मन
से विचर रहे
हैं॥4॥
दोहा :
*
सुचि सुंदर आश्रमु
निरखि हरषे राजिवनेन।
सुनि रघुबर
आगमनु मुनि आगें
आयउ लेन॥124॥
भावार्थ:-पवित्र और
सुंदर आश्रम को
देखकर कमल नयन
श्री रामचन्द्रजी हर्षित
हुए। रघु श्रेष्ठ
श्री रामजी का
आगमन सुनकर मुनि
वाल्मीकिजी उन्हें लेने
के लिए आगे
आए॥124॥
चौपाई :
*
मुनि कहुँ राम
दंडवत कीन्हा। आसिरबादु
बिप्रबर दीन्हा॥
देखि राम छबि नयन
जुड़ाने। करि सनमानु
आश्रमहिं आने॥1॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी
ने मुनि को
दण्डवत किया। विप्र
श्रेष्ठ मुनि ने
उन्हें आशीर्वाद दिया।
श्री रामचन्द्रजी की
छबि देखकर मुनि
के नेत्र शीतल
हो गए। सम्मानपूर्वक
मुनि उन्हें आश्रम मंं
ले आए॥1॥
*
मुनिबर अतिथि प्रानप्रिय
पाए। कंद मूल
फल मधुर मँगाए॥
सिय सौमित्रि
राम फल खाए।
तब मुनि आश्रम
दिए सुहाए॥2॥
भावार्थ:-श्रेष्ठ मुनि
वाल्मीकिजी ने प्राणप्रिय
अतिथियों को पाकर
उनके लिए मधुर
कंद, मूल और फल
मँगवाए। श्री सीताजी, लक्ष्मणजी और
रामचन्द्रजी ने फलों
को खाया। तब
मुनि ने उनको
(विश्राम करने के
लिए) सुंदर स्थान
बतला दिए॥2॥
* बालमीकि
मन आनँदु भारी।
मंगल मूरति नयन
निहारी॥
तब
कर कमल जोरि
रघुराई। बोले बचन
श्रवन सुखदाई॥3॥
भावार्थ:-(मुनि श्री
रामजी के पास
बैठे हैं और
उनकी) मंगल मूर्ति
को नेत्रों से
देखकर वाल्मीकिजी के
मन में बड़ा
भारी आनंद हो रहा है।
तब श्री रघुनाथजी
कमलसदृश हाथों को
जोड़कर, कानों को सुख
देने वाले मधुर
वचन बोले-॥3॥
*
तुम्ह त्रिकाल दरसी
मुनिनाथा। बिस्व बदर
जिमि तुम्हरें हाथा ॥
अस
कहि प्रभु सब
कथा बखानी। जेहि
जेहि भाँति दीन्ह
बनु रानी॥4॥
भावार्थ:-हे मुनिनाथ!
आप त्रिकालदर्शी हैं।
सम्पूर्ण विश्व आपके
लिए हथेली पर
रखे हुए बेर
के समान है।
प्रभु श्री रामचन्द्रजी
ने ऐसा कहकर
फिर जिस-जिस प्रकार
से रानी कैकेयी
ने वनवास दिया, वह सब
कथा विस्तार से
सुनाई॥4॥
दोहा :
*
तात बचन पुनि
मातु हित भाइ
भरत अस राउ।
मो
कहुँ दरस तुम्हार
प्रभु सबु मम
पुन्य प्रभाउ॥125॥
भावार्थ:-(और कहा-)
हे प्रभो! पिता
की आज्ञा (का
पालन), माता का हित
और भरत जैसे
(स्नेही एवं धर्मात्मा)
भाई का राजा
होना और फिर
मुझे आपके दर्शन
होना, यह सब
मेरे पुण्यों का
प्रभाव है॥125॥
चौपाई :
*
देखि पाय मुनिराय
तुम्हारे। भए सुकृत
सब सुफल हमारे॥॥
अब
जहँ राउर आयसु
होई। मुनि उदबेगु
न पावै कोई॥1॥
भावार्थ:-हे मुनिराज!
आपके चरणों का
दर्शन करने से
आज हमारे सब
पुण्य सफल हो
गए (हमें सारे
पुण्यों का फल मिल गया)।
अब जहाँ आपकी
आज्ञा हो और
जहाँ कोई भी
मुनि उद्वेग को
प्राप्त न हो-॥1॥
*
मुनि तापस जिन्ह
तें दुखु लहहीं।
ते नरेस बिनु
पावक दहहीं॥
मंगल मूल
बिप्र परितोषू। दहइ
कोटि कुल भूसुर
रोषू॥2॥
भावार्थ:-क्योंकि जिनसे
मुनि और तपस्वी
दुःख पाते हैं, वे राजा
बिना अग्नि के
ही (अपने दुष्ट
कर्मों से ही)
जलकर भस्म हो
जाते हैं। ब्राह्मणों
का संतोष सब
मंगलों की जड़
है और भूदेव
ब्राह्मणों का क्रोध
करोड़ों कुलों को
भस्म कर देता
है॥2॥
*
अस जियँ जानि
कहिअ सोइ ठाऊँ।
सिय सौमित्रि सहित
जहँ जाऊँ॥
तहँ रचि
रुचिर परन तृन
साला। बासु करौं
कछु काल कृपाला॥3॥
भावार्थ:-ऐसा हृदय
में समझकर- वह
स्थान बतलाइए जहाँ
मैं लक्ष्मण और सीता
सहित जाऊँ और
वहाँ सुंदर पत्तों
और घास की
कुटी बनाकर, हे दयालु!
कुछ समय निवास
करूँ॥3॥
*
सहज सरल सुनि
रघुबर बानी। साधु
साधु बोले मुनि
ग्यानी॥
कस
न कहहु अस
रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक
संतत श्रुति सेतू॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी
की सहज ही
सरल वाणी सुनकर
ज्ञानी मुनि वाल्मीकि
बोले- धन्य! धन्य!
हे रघुकुल के
ध्वजास्वरूप! आप ऐसा
क्यों न कहेंगे? आप सदैव
वेद की मर्यादा
का पालन (रक्षण)
करते हैं॥4॥
छन्द :
*
श्रुति सेतु पालक
राम तुम्ह जगदीस
माया जानकी।
जो
सृजति जगु पालति
हरति रुख पाइ
कृपानिधान की॥
जो
सहससीसु अहीसु महिधरु
लखनु सचराचर धनी।
सुर काज
धरि नरराज तनु
चले दलन खल
निसिचर अनी॥
भावार्थ:-हे राम!
आप वेद की
मर्यादा के रक्षक
जगदीश्वर हैं और
जानकीजी (आपकी स्वरूप
भूता) माया हैं, जो कृपा
के भंडार आपका
रुख पाकर जगत
का सृजन, पालन और
संहार करती हैं।
जो हजार मस्तक
वाले सर्पों के
स्वामी और पृथ्वी
को अपने सिर
पर धारण करने
वाले हैं, वही चराचर
के स्वामी शेषजी
लक्ष्मण हैं। देवताओं
के कार्य के
लिए आप राजा
का शरीर धारण
करके दुष्ट राक्षसों
की सेना का
नाश करने के
लिए चले हैं।
सोरठा :
*
राम सरूप तुम्हार
बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ
अपार नेति नेति
नित निगम कह।126॥
भावार्थ:-हे राम!
आपका स्वरूप वाणी
के अगोचर, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और
अपार है। वेद
निरंतर उसका 'नेति-नेति' कहकर वर्णन
करते हैं॥126॥
चौपाई :
*
जगु पेखन तुम्ह
देखनिहारे। बिधि हरि
संभु नचावनिहारे॥
तेउ न
जानहिं मरमु तुम्हारा।
औरु तुम्हहि को
जाननिहारा॥1॥
भावार्थ:-हे राम!
जगत दृश्य है, आप उसके
देखने वाले हैं।
आप ब्रह्मा, विष्णु और
शंकर को भी
नचाने वाले हैं।
जब वे भी
आपके मर्म को
नहीं जानते, तब और
कौन आपको जानने
वाला है?॥1॥
*
सोइ जानइ जेहि
देहु जनाई। जानत
तुम्हहि तुम्हइ होइ
जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ
तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं
भगत भगत उर
चंदन॥2॥
भावार्थ:-वही आपको
जानता है, जिसे आप
जना देते हैं
और जानते ही वह आपका
ही स्वरूप बन
जाता है। हे
रघुनंदन! हे भक्तों
के हृदय को
शीतल करने वाले
चंदन! आपकी ही
कृपा से भक्त
आपको जान पाते
हैं॥2॥
*
चिदानंदमय देह तुम्हारी।
बिगत बिकार जान
अधिकारी॥
नर
तनु धरेहु संत
सुर काजा। कहहु
करहु जस प्राकृत
राजा॥3॥
भावार्थ:-आपकी देह
चिदानन्दमय है (यह
प्रकृतिजन्य पंच महाभूतों
की बनी हुई
कर्म बंधनयुक्त, त्रिदेह विशिष्ट
मायिक नहीं है) और (उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय आदि)
सब विकारों से
रहित है, इस रहस्य
को अधिकारी पुरुष
ही जानते हैं।
आपने देवता और
संतों के कार्य
के लिए (दिव्य)
नर शरीर धारण
किया है और
प्राकृत (प्रकृति के
तत्वों से निर्मित
देह वाले, साधारण) राजाओं
की तरह से
कहते और करते
हैं॥3॥
*
राम देखि सुनि
चरित तुम्हारे। जड़
मोहहिं बुध होहिं
सुखारे॥
तुम्ह जो
कहहु करहु सबु
साँचा। जस काछिअ
तस चाहिअ नाचा॥4॥
भावार्थ:-हे राम!
आपके चरित्रों को देख और
सुनकर मूर्ख लोग
तो मोह को
प्राप्त होते हैं और ज्ञानीजन
सुखी होते हैं।
आप जो कुछ
कहते, करते हैं, वह सब
सत्य (उचित) ही है, क्योंकि जैसा
स्वाँग भरे वैसा
ही नाचना भी
तो चाहिए (इस
समय आप मनुष्य
रूप में हैं,
अतः मनुष्योचित व्यवहार
करना ठीक ही
है।)॥4॥
दोहा :
*
पूँछेहु मोहि कि
रहौं कहँ मैं
पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न
होहु तहँ देहु
कहि तुम्हहि देखावौं
ठाउँ॥127॥
भावार्थ:-आपने मुझसे
पूछा कि मैं
कहाँ रहूँ? परन्तु मैं
यह पूछते सकुचाता
हूँ कि जहाँ
आप न हों,
वह स्थान बता
दीजिए। तब मैं
आपके रहने के
लिए स्थान दिखाऊँ॥127॥
चौपाई :
*
सुनि मुनि बचन
प्रेम रस साने।
सकुचि राम मन
महुँ मुसुकाने॥
बालमीकि हँसि
कहहिं बहोरी। बानी
मधुर अमिअ रस
बोरी॥1॥
भावार्थ:-मुनि के
प्रेमरस से सने
हुए वचन सुनकर
श्री रामचन्द्रजी रहस्य
खुल जाने के
डर से सकुचाकर
मन में मुस्कुराए।
वाल्मीकिजी हँसकर फिर
अमृत रस में
डुबोई हुई मीठी
वाणी बोले-॥1॥
*
सुनहु राम अब
कहउँ निकेता। जहाँ
बसहु सिय लखन
समेता॥
जिन्ह के
श्रवन समुद्र समाना।
कथा तुम्हारि सुभग
सरि नाना॥2॥
भावार्थ:-हे रामजी!
सुनिए, अब मैं वे
स्थान बताता हूँ,
जहाँ आप, सीताजी और
लक्ष्मणजी समेत निवास
कीजिए। जिनके कान
समुद्र की भाँति
आपकी सुंदर कथा
रूपी अनेक सुंदर
नदियों से-॥2॥
*
भरहिं निरंतर होहिं
न पूरे। तिन्ह
के हिय तुम्ह
कहुँ गुह रूरे॥
लोचन चातक
जिन्ह करि राखे।
रहहिं दरस जलधर
अभिलाषे॥3॥
भावार्थ:-निरंतर भरते
रहते हैं, परन्तु कभी
पूरे (तृप्त) नहीं
होते, उनके हृदय
आपके लिए सुंदर
घर हैं और
जिन्होंने अपने नेत्रों
को चातक बना
रखा है, जो आपके
दर्शन रूपी मेघ
के लिए सदा
लालायित रहते हैं,॥3॥
*
निदरहिं सरित सिंधु
सर भारी। रूप
बिंदु जल होहिं
सुखारी॥
तिन्ह कें
हृदय सदन सुखदायक।
बसहु बंधु सिय
सह रघुनायक॥4॥
भावार्थ:-तथा जो
भारी-भारी नदियों, समुद्रों और
झीलों का निरादर
करते हैं और
आपके सौंदर्य (रूपी
मेघ) की एक
बूँद जल से
सुखी हो जाते
हैं (अर्थात आपके
दिव्य सच्चिदानन्दमय स्वरूप
के किसी एक
अंग की जरा
सी भी झाँकी
के सामने स्थूल,
सूक्ष्म और कारण
तीनों जगत के
अर्थात पृथ्वी, स्वर्ग और
ब्रह्मलोक तक के
सौंदर्य का तिरस्कार
करते हैं), हे रघुनाथजी!
उन लोगों के
हृदय रूपी सुखदायी
भवनों में आप
भाई लक्ष्मणजी और
सीताजी सहित निवास
कीजिए॥4॥
दोहा :
*
जसु तुम्हार मानस
बिमल हंसिनि जीहा
जासु।
मुकताहल गुन
गन चुनइ राम
बसहु हियँ तासु॥128॥
भावार्थ:-आपके यश
रूपी निर्मल मानसरोवर
में जिसकी जीभ
हंसिनी बनी हुई
आपके गुण समूह
रूपी मोतियों को
चुगती रहती है, हे रामजी!
आप उसके हृदय
में बसिए॥128॥
चौपाई :
*
प्रभु प्रसाद सुचि
सुभग सुबासा। सादर
जासु लहइ नित
नासा॥
तुम्हहि निबेदित
भोजन करहीं। प्रभु
प्रसाद पट भूषन
धरहीं॥1॥
भावार्थ:-जिसकी नासिका
प्रभु (आप) के
पवित्र और सुगंधित
(पुष्पादि) सुंदर प्रसाद
को नित्य आदर
के साथ ग्रहण
करती (सूँघती) है
और जो आपको
अर्पण करके भोजन
करते हैं और
आपके प्रसाद रूप
ही वस्त्राभूषण धारण
करते हैं,॥1॥
*
सीस नवहिं सुर
गुरु द्विज देखी।
प्रीति सहित करि
बिनय बिसेषी॥
कर
नित करहिं राम
पद पूजा। राम
भरोस हृदयँ नहिं
दूजा॥2॥
भावार्थ:-जिनके मस्तक
देवता, गुरु और ब्राह्मणों
को देखकर बड़ी
नम्रता के साथ
प्रेम सहित झुक
जाते हैं, जिनके हाथ
नित्य श्री रामचन्द्रजी
(आप) के चरणों
की पूजा करते
हैं और जिनके
हृदय में श्री
रामचन्द्रजी (आप) का
ही भरोसा है,
दूसरा नहीं,॥2॥
*
चरन राम तीरथ
चलि जाहीं। राम
बसहु तिन्ह के
मन माहीं॥
मंत्रराजु नित
जपहिं तुम्हारा। पूजहिं
तुम्हहि सहित परिवारा॥3॥
भावार्थ:-तथा जिनके
चरण श्री रामचन्द्रजी
(आप) के तीर्थों
में चलकर जाते
हैं, हे रामजी! आप
उनके मन में
निवास कीजिए। जो नित्य आपके
(राम नाम रूप)
मंत्रराज को जपते
हैं और परिवार
(परिकर) सहित आपकी
पूजा करते हैं॥3॥
*
तरपन होम करहिं
बिधि नाना। बिप्र
जेवाँइ देहिं बहु
दाना॥
तुम्ह तें
अधिक गुरहि जियँ
जानी। सकल भायँ
सेवहिं सनमानी॥4॥
भावार्थ:-जो अनेक
प्रकार से तर्पण
और हवन करते
हैं तथा ब्राह्मणों
को भोजन कराकर
बहुत दान देते
हैं तथा जो
गुरु को हृदय
में आपसे भी
अधिक (बड़ा) जानकर
सर्वभाव से सम्मान
करके उनकी सेवा
करते हैं,॥4॥
दोहा :
*
सबु करि मागहिं
एक फलु राम
चरन रति होउ।
तिन्ह कें
मन मंदिर बसहु
सिय रघुनंदन दोउ॥129॥
भावार्थ:-और ये
सब कर्म करके
सबका एक मात्र
यही फल माँगते
हैं कि श्री
रामचन्द्रजी के चरणों
में हमारी प्रीति
हो, उन लोगों के
मन रूपी मंदिरों
में सीताजी और
रघुकुल को आनंदित
करने वाले आप
दोनों बसिए॥129॥
चौपाई :
*
काम कोह मद
मान न मोहा।
लोभ न छोभ
न राग न
द्रोहा॥
जिन्ह कें
कपट दंभ नहिं
माया। तिन्ह कें
हृदय बसहु रघुराया॥1॥
भावार्थ:-जिनके न
तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और
मोह हैं, न लोभ है, न क्षोभ
है, न राग है, न द्वेष
है और न कपट, दम्भ और
माया ही है-
हे रघुराज! आप
उनके हृदय में
निवास कीजिए॥1॥
*
सब के प्रिय
सब के हितकारी।
दुख सुख सरिस
प्रसंसा गारी॥
कहहिं सत्य
प्रिय बचन बिचारी।
जागत सोवत सरन
तुम्हारी॥2॥
भावार्थ:-जो सबके
प्रिय और सबका
हित करने वाले
हैं, जिन्हें दुःख और
सुख तथा प्रशंसा
(बड़ाई) और गाली
(निंदा) समान है,
जो विचारकर सत्य
और प्रिय वचन बोलते हैं
तथा जो जागते-सोते
आपकी ही शरण
हैं,॥2॥
*
तुम्हहि छाड़ि गति
दूसरि नाहीं। राम
बसहु तिन्ह के
मन माहीं॥
जननी सम
जानहिं परनारी। धनु
पराव बिष तें
बिष भारी॥3॥
भावार्थ:-और आपको
छोड़कर जिनके दूसरे
कोई गति (आश्रय)
नहीं है, हे रामजी!
आप उनके मन
में बसिए। जो
पराई स्त्री को
जन्म देने वाली
माता के समान
जानते हैं और
पराया धन जिन्हें
विष से भी
भारी विष है,॥3॥
*
जे हरषहिं पर
संपति देखी। दुखित
होहिं पर बिपति
बिसेषी॥
जिन्हहि राम
तुम्ह प्रान पिआरे।
तिन्ह के मन
सुभ सदन तुम्हारे॥4॥
भावार्थ:-जो दूसरे
की सम्पत्ति देखकर
हर्षित होते हैं
और दूसरे की
विपत्ति देखकर विशेष
रूप से दुःखी
होते हैं और
हे रामजी! जिन्हें
आप प्राणों के
समान प्यारे हैं, उनके मन
आपके रहने योग्य
शुभ भवन हैं॥4॥
दोहा :
*
स्वामि सखा पितु
मातु गुर जिन्ह
के सब तुम्ह
तात।
मन
मंदिर तिन्ह कें
बसहु सीय सहित
दोउ भ्रात॥130॥
भावार्थ:-हे तात!
जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और
गुरु सब कुछ
आप ही हैं,
उनके मन रूपी
मंदिर में सीता
सहित आप दोनों
भाई निवास कीजिए॥130॥
चौपाई :
*
अवगुन तजि सब
के गुन गहहीं।
बिप्र धेनु हित
संकट सहहीं॥
नीति निपुन
जिन्ह कइ जग
लीका। घर तुम्हार
तिन्ह कर मनु
नीका॥1॥
भावार्थ:-जो अवगुणों
को छोड़कर सबके
गुणों को ग्रहण
करते हैं, ब्राह्मण और
गो के लिए
संकट सहते हैं,
नीति-निपुणता
में जिनकी जगत
में मर्यादा है,
उनका सुंदर मन
आपका घर है॥1॥
*
गुन तुम्हार समुझइ
निज दोसा। जेहि
सब भाँति तुम्हार
भरोसा॥
राम भगत
प्रिय लागहिं जेही।
तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥2॥
भावार्थ:-जो गुणों
को आपका और
दोषों को अपना
समझता है, जिसे सब
प्रकार से आपका
ही भरोसा है
और राम भक्त
जिसे प्यारे लगते
हैं, उसके हृदय
में आप सीता
सहित निवास कीजिए॥2॥
*
जाति पाँति धनु
धरमु बड़ाई। प्रिय
परिवार सदन सुखदाई॥
सब
तजि तुम्हहि रहइ
उर लाई। तेहि
के हृदयँ रहहु
रघुराई॥3॥
भावार्थ:-जाति, पाँति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार
और सुख देने
वाला घर, सबको छोड़कर
जो केवल आपको
ही हृदय में
धारण किए रहता
है, हे रघुनाथजी!
आप उसके हृदय
में रहिए॥3॥
*
सरगु नरकु अपबरगु
समाना। जहँ तहँ
देख धरें धनु
बाना॥
करम बचन
मन राउर चेरा।
राम करहु तेहि
कें उर डेरा॥4॥
भावार्थ:-स्वर्ग, नरक और
मोक्ष जिसकी दृष्टि
में समान हैं,
क्योंकि वह जहाँ-तहाँ
(सब जगह) केवल
धनुष-बाण धारण किए
आपको ही देखता
है और जो
कर्म से, वचन से
और मन से
आपका दास है,
हे रामजी! आप
उसके हृदय में
डेरा कीजिए॥4॥
दोहा :
*
जाहि न चाहिअ
कबहुँ कछु तुम्ह
सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर
तासु मन सो
राउर निज गेहु॥131॥
भावार्थ:-जिसको कभी
कुछ भी नहीं
चाहिए और जिसका
आपसे स्वाभाविक प्रेम
है, आप उसके मन
में निरंतर निवास
कीजिए, वह आपका
अपना घर है॥131॥
चौपाई :
*
एहि बिधि मुनिबर
भवन देखाए। बचन सप्रेम राम
मन भाए॥
कह
मुनि सुनहु भानुकुलनायक।
आश्रम कहउँ समय
सुखदायक॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार
मुनि श्रेष्ठ वाल्मीकिजी
ने श्री रामचन्द्रजी
को घर दिखाए।
उनके प्रेमपूर्ण वचन
श्री रामजी के
मन को अच्छे
लगे। फिर मुनि
ने कहा- हे सूर्यकुल के
स्वामी! सुनिए, अब मैं
इस समय के
लिए सुखदायक आश्रम
कहता हूँ (निवास
स्थान बतलाता हूँ)॥1॥
*
चित्रकूट गिरि करहु
निवासू। तहँ तुम्हार
सब भाँति सुपासू॥
सैलु सुहावन
कानन चारू। करि
केहरि मृग बिहग
बिहारू॥2॥
भावार्थ:-आप चित्रकूट
पर्वत पर निवास
कीजिए, वहाँ आपके लिए
सब प्रकार की
सुविधा है। सुहावना
पर्वत है और
सुंदर वन है।
वह हाथी, सिंह, हिरन और
पक्षियों का विहार
स्थल है॥2॥
*
नदी पुनीत पुरान
बखानी। अत्रिप्रिया निज
तप बल आनी॥
सुरसरि धार
नाउँ मंदाकिनि। जो
सब पातक पोतक
डाकिनि॥3॥
भावार्थ:-वहाँ पवित्र
नदी है, जिसकी पुराणों
ने प्रशंसा की है और
जिसको अत्रि ऋषि
की पत्नी अनसुयाजी
अपने तपोबल से लाई थीं।
वह गंगाजी की
धारा है, उसका मंदाकिनी
नाम है। वह
सब पाप रूपी
बालकों को खा
डालने के लिए
डाकिनी (डायन) रूप
है॥3॥
*
अत्रि आदि मुनिबर
बहु बसहीं। करहिं
जोग जप तप
तन कसहीं॥
चलहु सफल
श्रम सब कर
करहू। राम देहु
गौरव गिरिबरहू॥4॥
भावार्थ:-अत्रि आदि
बहुत से श्रेष्ठ
मुनि वहाँ निवास करते हैं, जो योग,
जप और तप
करते हुए शरीर
को कसते हैं।
हे रामजी! चलिए,
सबके परिश्रम को
सफल कीजिए और
पर्वत श्रेष्ठ चित्रकूट
को भी गौरव
दीजिए॥4॥
चित्रकूट में
निवास, कोल-भीलों के द्वारा
सेवा
दोहा :
*
चित्रकूट महिमा अमित
कही महामुनि गाइ।
आइ
नहाए सरित बर
सिय समेत दोउ
भाइ॥132॥
भावार्थ:-महामुनि वाल्मीकिजी
ने चित्रकूट की
अपरिमित महिमा बखान
कर कही। तब
सीताजी सहित दोनों
भाइयों ने आकर
श्रेष्ठ नदी मंदाकिनी
में स्नान किया॥132॥
चौपाई :
*
रघुबर कहेउ लखन
भल घाटू। करहु
कतहुँ अब ठाहर
ठाटू॥
लखन दीख
पय उतर करारा।
चहुँ दिसि फिरेउ
धनुष जिमि नारा॥1॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी
ने कहा- लक्ष्मण!
बड़ा अच्छा घाट
है। अब यहीं
कहीं ठहरने की
व्यवस्था करो। तब
लक्ष्मणजी ने पयस्विनी
नदी के उत्तर
के ऊँचे किनारे
को देखा (और
कहा कि-) इसके
चारों ओर धनुष
के जैसा एक
नाला फिरा हुआ
है॥।1॥
*
नदी पनच सर
सम दम दाना।
सकल कलुष कलि
साउज नाना॥
चित्रकूट जनु
अचल अहेरी। चुकइ न घात
मार मुठभेरी॥2॥
भावार्थ:-नदी (मंदाकिनी)
उस धनुष की
प्रत्यंचा (डोरी) है
और शम, दम, दान बाण
हैं। कलियुग के
समस्त पाप उसके
अनेक हिंसक पशु
(रूप निशाने) हैं।
चित्रकूट ही मानो
अचल शिकारी है,
जिसका निशाना कभी
चूकता नहीं और
जो सामने से
मारता है॥2॥
*
अस कहि लखन
ठाउँ देखरावा। थलु
बिलोकि रघुबर सुखु
पावा॥
रमेउ राम
मनु देवन्ह जाना।
चले सहित सुर
थपति प्रधाना॥3॥
भावार्थ:-ऐसा कहकर
लक्ष्मणजी ने स्थान
दिखाया। स्थान को
देखकर श्री रामचन्द्रजी
ने सुख पाया।
जब देवताओं ने
जाना कि श्री
रामचन्द्रजी का मन
यहाँ रम गया, तब वे
देवताओं के प्रधान
थवई (मकान बनाने
वाले) विश्वकर्मा को साथ लेकर
चले॥3॥
*
कोल किरात बेष
सब आए। रचे
परन तृन सदन
सुहाए॥
बरनि न
जाहिं मंजु दुइ
साला। एक ललित
लघु एक बिसाला॥4॥
भावार्थ:-सब देवता
कोल-भीलों के वेष
में आए और
उन्होंने (दिव्य) पत्तों
और घासों के
सुंदर घर बना
दिए। दो ऐसी
सुंदर कुटिया बनाईं
जिनका वर्णन नहीं
हो सकता। उनमें
एक बड़ी सुंदर
छोटी सी थी
और दूसरी बड़ी थी॥4॥
दोहा :
*
लखन जानकी सहित
प्रभु राजत रुचिर
निकेत।
सोह मदनु
मुनि बेष जनु
रति रितुराज समेत॥133॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी और
जानकीजी सहित प्रभु
श्री रामचन्द्रजी सुंदर
घास-पत्तों के घर
में शोभायमान हैं।
मानो कामदेव मुनि
का वेष धारण
करके पत्नी रति
और वसंत ऋतु
के साथ सुशोभित
हो॥133॥
मासपारायण, सत्रहवाँ विश्राम
चौपाई :
*
अमर नाग किंनर
दिसिपाला। चित्रकूट आए
तेहि काला॥
राम प्रनामु
कीन्ह सब काहू।
मुदित देव लहि
लोचन लाहू॥1॥
भावार्थ:-उस समय
देवता, नाग, किन्नर और दिक्पाल चित्रकूट
में आए और
श्री रामचन्द्रजी ने
सब किसी को
प्रणाम किया। देवता
नेत्रों का लाभ
पाकर आनंदित हुए॥1॥
*
बरषि सुमन कह
देव समाजू। नाथ
सनाथ भए हम
आजू॥
करि बिनती
दुख दुसह सुनाए।
हरषित निज निज
सदन सिधाए॥2॥
भावार्थ:-फूलों की
वर्षा करके देव
समाज ने कहा-
हे नाथ! आज (आपका दर्शन
पाकर) हम सनाथ
हो गए। फिर
विनती करके उन्होंने
अपने दुःसह दुःख
सुनाए और (दुःखों
के नाश का
आश्वासन पाकर) हर्षित
होकर अपने-अपने स्थानों
को चले गए॥2॥
*
चित्रकूट रघुनंदनु छाए।
समाचार सुनि सुनि
मुनि आए॥
आवत देखि
मुदित मुनिबृंदा। कीन्ह
दंडवत रघुकुल चंदा॥3॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी
चित्रकूट में आ बसे हैं, यह समाचार
सुन-सुनकर बहुत से
मुनि आए। रघुकुल
के चन्द्रमा श्री
रामचन्द्रजी ने मुदित
हुई मुनि मंडली
को आते देखकर
दंडवत प्रणाम किया॥3॥
*
मुनि रघुबरहि लाइ
उर लेहीं। सुफल
होन हित आसिष
देहीं॥
सिय सौमित्रि
राम छबि देखहिं।
साधन सकल सफल
करि लेखहिं॥4॥
भावार्थ:-मुनिगण श्री
रामजी को हृदय
से लगा लेते
हैं और सफल होने
के लिए आशीर्वाद
देते हैं। वे
सीताजी, लक्ष्मणजी और श्री
रामचन्द्रजी की छबि
देखते हैं और
अपने सारे साधनों
को सफल हुआ
समझते हैं॥4॥
दोहा :
*
जथाजोग सनमानि प्रभु
बिदा किए मुनिबृंद।
करहिं जोग
जप जाग तप
निज आश्रमन्हि सुछंद॥134॥
भावार्थ:-प्रभु श्री
रामचन्द्रजी ने यथायोग्य
सम्मान करके मुनि
मंडली को विदा
किया। (श्री रामचन्द्रजी
के आ जाने
से) वे सब
अपने-अपने आश्रमों में
अब स्वतंत्रता के
साथ योग, जप, यज्ञ और
तप करने लगे॥134॥
चौपाई :
*
यह सुधि कोल
किरातन्ह पाई। हरषे
जनु नव निधि
घर आई॥
कंद मूल
फल भरि भरि
दोना। चले रंक
जनु लूटन सोना॥1॥
भावार्थ:-यह (श्री
रामजी के आगमन
का) समाचार जब
कोल-भीलों ने पाया, तो वे
ऐसे हर्षित हुए
मानो नवों निधियाँ
उनके घर ही
पर आ गई
हों। वे दोनों
में कंद, मूल, फल भर-भरकर
चले, मानो दरिद्र
सोना लूटने चले
हों॥1॥
*
तिन्ह महँ जिन्ह
देखे दोउ भ्राता।
अपर तिन्हहि पूँछहिं
मगु जाता॥
कहत सुनत
रघुबीर निकाई। आइ
सबन्हि देखे रघुराई॥2॥
भावार्थ:-उनमें से
जो दोनों भाइयों
को (पहले) देख
चुके थे, उनसे दूसरे
लोग रास्ते में
जाते हुए पूछते
हैं। इस प्रकार
श्री रामचन्द्रजी की
सुंदरता कहते-सुनते सबने
आकर श्री रघुनाथजी
के दर्शन किए॥2॥
*
करहिं जोहारु भेंट
धरि आगे। प्रभुहि
बिलोकहिं अति अनुरागे॥
चित्र लिखे
जनु जहँ तहँ
ठाढ़े। पुलक सरीर
नयन जल बाढ़े॥3॥
भावार्थ:-भेंट आगे
रखकर वे लोग
जोहार करते हैं
और अत्यन्त अनुराग
के साथ प्रभु
को देखते हैं।
वे मुग्ध हुए
जहाँ के तहाँ मानो चित्र
लिखे से खड़े
हैं। उनके शरीर
पुलकित हैं और
नेत्रों में प्रेमाश्रुओं
के जल की
बाढ़ आ रही
है॥3॥
*
राम सनेह मगन
सब जाने। कहि
प्रिय बचन सकल
सनमाने॥
प्रभुहि जोहारि
बहोरि बहोरी। बचन
बिनीत कहहिंकर जोरी॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी
ने उन सबको
प्रेम में मग्न
जाना और प्रिय
वचन कहकर सबका
सम्मान किया। वे
बार-बार प्रभु श्री
रामचन्द्रजी को जोहार
करते हुए हाथ
जोड़कर विनीत वचन
कहते हैं-॥4॥
दोहा :
*
अब हम नाथ
सनाथ सब भए
देखि प्रभु पाय।
भाग हमारें
आगमनु राउर कोसलराय॥135॥
भावार्थ:-हे नाथ!
प्रभु (आप) के
चरणों का दर्शन
पाकर अब हम
सब सनाथ हो
गए। हे कोसलराज!
हमारे ही भाग्य
से आपका यहाँ
शुभागमन हुआ है॥135॥
चौपाई :
*
धन्य भूमि बन
पंथ पहारा। जहँ
जहँ नाथ पाउ
तुम्ह धारा॥
धन्य बिहग
मृग काननचारी। सफल
जनम भए तुम्हहि
निहारी॥1॥
भावार्थ:-हे नाथ!
जहाँ-जहाँ आपने अपने
चरण रखे हैं, वे पृथ्वी, वन, मार्ग और
पहाड़ धन्य हैं,
वे वन में
विचरने वाले पक्षी
और पशु धन्य
हैं, जो आपको
देखकर सफल जन्म
हो गए॥1॥
*
हम सब धन्य
सहित परिवारा। दीख
दरसु भरि नयन
तुम्हारा॥
कीन्ह बासु
भल ठाउँ बिचारी।
इहाँ सकल रितु
रहब सुखारी॥2॥
भावार्थ:-हम सब
भी अपने परिवार
सहित धन्य हैं, जिन्होंने नेत्र
भरकर आपका दर्शन
किया। आपने बड़ी
अच्छी जगह विचारकर
निवास किया है।
यहाँ सभी ऋतुओं
में आप सुखी
रहिएगा॥2॥
*
हम सब भाँति
करब सेवकाई। करि
केहरि अहि बाघ
बराई॥
बन
बेहड़ गिरि कंदर
खोहा। सब हमार
प्रभु पग पग
जोहा॥3॥
भावार्थ:-हम लोग
सब प्रकार से
हाथी, सिंह, सर्प और
बाघों से बचाकर
आपकी सेवा करेंगे।
हे प्रभो! यहाँ
के बीहड़ वन,
पहाड़, गुफाएँ और खोह
(दर्रे) सब पग-पग
हमारे देखे हुए
हैं॥3॥
*
तहँ तहँ तुम्हहि
अहेर खेलाउब। सर
निरझर जलठाउँ देखाउब॥
हम
सेवक परिवार समेता।
नाथ न सकुचब
आयसु देता॥4॥
भावार्थ:-हम वहाँ-वहाँ
(उन-उन स्थानों में)
आपको शिकार खिलाएँगे
और तालाब, झरने आदि
जलाशयों को दिखाएँगे।
हम कुटुम्ब समेत
आपके सेवक हैं।
हे नाथ! इसलिए
हमें आज्ञा देने
में संकोच न
कीजिए॥4॥
दोहा :
*
बेद बचन मुनि
मन अगम ते
प्रभु करुना ऐन।
बचन किरातन्ह
के सुनत जिमि
पितु बालक बैन॥136॥
भावार्थ:-जो वेदों
के वचन और
मुनियों के मन
को भी अगम
हैं, वे करुणा के
धाम प्रभु श्री
रामचन्द्रजी भीलों के
वचन इस तरह
सुन रहे हैं,
जैसे पिता बालकों
के वचन सुनता
है॥136॥
चौपाई :
*
रामहि केवल प्रेमु
पिआरा। जानि लेउ
जो जान निहारा॥
राम सकल
बनचर तब तोषे।
कहि मृदु बचन
प्रेम परिपोषे॥1॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी
को केवल प्रेम
प्यारा है, जो जानने
वाला हो (जानना
चाहता हो), वह जान
ले। तब श्री
रामचन्द्रजी ने प्रेम
से परिपुष्ट हुए
(प्रेमपूर्ण) कोमल वचन
कहकर उन सब
वन में विचरण
करने वाले लोगों
को संतुष्ट किया॥1॥
*
बिदा किए सिर
नाइ सिधाए। प्रभु
गुन कहत सुनत
घर आए॥
एहि बिधि
सिय समेत दोउ
भाई। बसहिं बिपिन
सुर मुनि सुखदाई॥2॥
भावार्थ:-फिर उनको
विदा किया। वे सिर नवाकर
चले और प्रभु
के गुण कहते-सुनते
घर आए। इस
प्रकार देवता और
मुनियों को सुख
देने वाले दोनों
भाई सीताजी समेत
वन में निवास
करने लगे॥2॥
*
जब तें आइ
रहे रघुनायकु। तब
तें भयउ बनु
मंगलदायकु॥
फूलहिं फलहिं
बिटप बिधि नाना।
मंजु बलित बर
बेलि बिताना॥3॥
भावार्थ:-जब से
श्री रघुनाथजी वन में आकर
रहे तब से
वन मंगलदायक हो
गया। अनेक प्रकार
के वृक्ष फूलते
और फलते हैं
और उन पर
लिपटी हुई सुंदर
बेलों के मंडप
तने हैं॥3॥
*
सुरतरु सरिस सुभायँ
सुहाए। मनहुँ बिबुध
बन परिहरि आए॥
गुंज मंजुतर
मधुकर श्रेनी। त्रिबिध
बयारि बहइ सुख
देनी॥4॥
भावार्थ:-वे कल्पवृक्ष
के समान स्वाभाविक
ही सुंदर हैं।
मानो वे देवताओं
के वन (नंदन
वन) को छोड़कर
आए हों। भौंरों
की पंक्तियाँ बहुत
ही सुंदर गुंजार
करती हैं और
सुख देने वाली
शीतल, मंद, सुगंधित हवा
चलती रहती है॥4॥
दोहा :
*
नीलकंठ कलकंठ सुक
चातक चक्क चकोर।
भाँति भाँति
बोलहिं बिहग श्रवन
सुखद चित चोर॥137॥
भावार्थ:-नीलकंठ, कोयल, तोते, पपीहे, चकवे और
चकोर आदि पक्षी
कानों को सुख
देने वाली और
चित्त को चुराने
वाली तरह-तरह की
बोलियाँ बोलते हैं॥137॥
चौपाई :
*
करि केहरि कपि
कोल कुरंगा। बिगतबैर
बिचरहिं सब संगा॥
फिरत अहेर
राम छबि देखी।
होहिं मुदित मृग
बृंद बिसेषी॥1॥
भावार्थ:-हाथी, सिंह, बंदर, सूअर और
हिरन, ये सब
वैर छोड़कर साथ-साथ
विचरते हैं। शिकार
के लिए फिरते
हुए श्री रामचन्द्रजी
की छबि को
देखकर पशुओं के
समूह विशेष आनंदित
होते हैं॥1॥
*
बिबुध बिपिन जहँ
लगि जग माहीं।
देखि रामबनु सकल
सिहाहीं॥
सुरसरि सरसइ
दिनकर कन्या। मेकलसुता
गोदावरि धन्या॥2॥
भावार्थ:-जगत में
जहाँ तक (जितने)
देवताओं के वन हैं, सब श्री
रामजी के वन
को देखकर सिहाते
हैं, गंगा, सरस्वती, सूर्यकुमारी यमुना,
नर्मदा, गोदावरी आदि धन्य
(पुण्यमयी) नदियाँ,॥2॥
*
सब सर सिंधु
नदीं नद नाना।
मंदाकिनि कर करहिं
बखाना॥
उदय अस्त
गिरि अरु कैलासू।
मंदर मेरु सकल
सुरबासू॥3॥
भावार्थ:-सारे तालाब, समुद्र, नदी और
अनेकों नद सब
मंदाकिनी की बड़ाई
करते हैं। उदयाचल, अस्ताचल, कैलास, मंदराचल और
सुमेरु आदि सब,
जो देवताओं के
रहने के स्थान
हैं,॥3॥
*
सैल हिमाचल आदिक
जेते। चित्रकूट जसु
गावहिं तेते॥
बिंधि मुदित
मन सुखु न
समाई। श्रम बिनु
बिपुल बड़ाई पाई॥4॥
भावार्थ:-और हिमालय
आदि जितने पर्वत
हैं, सभी चित्रकूट का
यश गाते हैं।
विन्ध्याचल बड़ा आनंदित
है, उसके मन
में सुख समाता
नहीं, क्योंकि उसने
बिना परिश्रम ही
बहुत बड़ी बड़ाई
पा ली है॥4॥
दोहा :
*
चित्रकूट के बिहग
मृग बेलि बिटप
तृन जाति।
पुन्य पुंज
सब धन्य अस
कहहिं देव दिन
राति॥138॥
भावार्थ:-चित्रकूट के
पक्षी, पशु, बेल, वृक्ष, तृण-अंकुरादि की
सभी जातियाँ पुण्य
की राशि हैं
और धन्य हैं-
देवता दिन-रात ऐसा
कहते हैं॥138॥
चौपाई :
*
नयनवंत रघुबरहि बिलोकी।
पाइ जनम फल
होहिं बिसोकी॥
परसि चरन
रज अचर सुखारी।
भए परम पद
के अधिकारी॥1॥
भावार्थ:-आँखों वाले
जीव श्री रामचन्द्रजी
को देखकर जन्म
का फल पाकर
शोकरहित हो जाते
हैं और अचर
(पर्वत, वृक्ष, भूमि, नदी आदि)
भगवान की चरण
रज का स्पर्श
पाकर सुखी होते
हैं। यों सभी
परम पद (मोक्ष)
के अधिकारी हो
गए॥1॥
*
सो बनु सैलु
सुभायँ सुहावन। मंगलमय
अति पावन पावन॥
महिमा कहिअ
कवनि बिधि तासू।
सुखसागर जहँ कीन्ह
निवासू॥2॥
भावार्थ:-वह वन
और पर्वत स्वाभाविक
ही सुंदर, मंगलमय और
अत्यन्त पवित्रों को भी पवित्र
करने वाला है।
उसकी महिमा किस
प्रकार कही जाए,
जहाँ सुख के समुद्र श्री
रामजी ने निवास
किया है॥2॥
*
पय पयोधि तजि
अवध बिहाई। जहँ
सिय लखनु रामु
रहे आई॥
कहि न
सकहिं सुषमा जसि
कानन। जौं सत
सहस होहिं सहसानन॥3॥
भावार्थ:-क्षीर सागर
को त्यागकर और
अयोध्या को छोड़कर
जहाँ सीताजी, लक्ष्मणजी और
श्री रामचन्द्रजी आकर
रहे, उस वन
की जैसी परम
शोभा है, उसको हजार
मुख वाले जो
लाख शेषजी हों
तो वे भी
नहीं कह सकते॥3॥
*
सो मैं बरनि
कहौं बिधि केहीं।
डाबर कमठ कि
मंदर लेहीं॥
सेवहिं लखनु
करम मन बानी।
जाइ न सीलु
सनेहु बखानी॥4॥
भावार्थ:-उसे भला, मैं किस
प्रकार से वर्णन
करके कह सकता
हूँ। कहीं पोखरे
का (क्षुद्र) कछुआ
भी मंदराचल उठा
सकता है? लक्ष्मणजी मन,
वचन और कर्म
से श्री रामचन्द्रजी
की सेवा करते
हैं। उनके शील
और स्नेह का
वर्णन नहीं किया
जा सकता॥4॥
दोहा :
*
छिनु छिनु लखि
सिय राम पद
जानि आपु पर
नेहु।
करत न
सपनेहुँ लखनु चितु
बंधु मातु पितु
गेहु॥139॥
भावार्थ:-क्षण-क्षण पर
श्री सीता-रामजी के
चरणों को देखकर
और अपने ऊपर
उनका स्नेह जानकर
लक्ष्मणजी स्वप्न में
भी भाइयों, माता-पिता और
घर की याद
नहीं करते॥139॥
चौपाई :
*
राम संग सिय
रहति सुखारी। पुर
परिजन गृह सुरति
बिसारी॥
छिनु छिनु
पिय बिधु बदनु
निहारी। प्रमुदित मनहुँ
चकोर कुमारी॥1॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी
के साथ सीताजी
अयोध्यापुरी,
कुटुम्ब के लोग
और घर की
याद भूलकर बहुत
ही सुखी रहती
हैं। क्षण-क्षण पर
पति श्री रामचन्द्रजी
के चन्द्रमा के
समान मुख को
देखकर वे वैसे
ही परम प्रसन्न
रहती हैं, जैसे चकोर
कुमारी (चकोरी) चन्द्रमा
को देखकर !॥1॥
*
नाह नेहु नित
बढ़त बिलोकी। हरषित
रहति दिवस जिमि
कोकी॥
सिय मनु
राम चरन अनुरागा।
अवध सहस सम
बनु प्रिय लागा॥2॥
भावार्थ:-स्वामी का
प्रेम अपने प्रति
नित्य बढ़ता हुआ
देखकर सीताजी ऐसी हर्षित रहती
हैं, जैसे दिन में
चकवी! सीताजी का
मन श्री रामचन्द्रजी
के चरणों में
अनुरक्त है, इससे उनको
वन हजारों अवध
के समान प्रिय
लगता है॥2॥
*
परनकुटी प्रिय प्रियतम
संगा। प्रिय परिवारु
कुरंग बिहंगा॥
सासु ससुर
सम मुनितिय मुनिबर।
असनु अमिअ सम
कंद मूल फर॥3॥
भावार्थ:-प्रियतम (श्री
रामचन्द्रजी) के साथ
पर्णकुटी प्यारी लगती
है। मृग और
पक्षी प्यारे कुटुम्बियों
के समान लगते
हैं। मुनियों की
स्त्रियाँ सास के
समान, श्रेष्ठ मुनि ससुर
के समान और
कंद-मूल-फलों का आहार
उनको अमृत के
समान लगता है॥3॥
*
नाथ साथ साँथरी
सुहाई। मयन सयन
सय सम सुखदाई॥
लोकप होहिं
बिलोकत जासू। तेहि
कि मोहि सक
बिषय बिलासू॥4॥
भावार्थ:-स्वामी के
साथ सुंदर साथरी
(कुश और पत्तों
की सेज) सैकड़ों
कामदेव की सेजों
के समान सुख
देने वाली है।
जिनके (कृपापूर्वक) देखने
मात्र से जीव
लोकपाल हो जाते
हैं, उनको कहीं भोग-विलास
मोहित कर सकते
हैं!॥4॥
दोहा :
*
सुमिरत रामहि तजहिं
जन तृन सम
बिषय बिलासु।
रामप्रिया जग
जननि सिय कछु
न आचरजु तासु॥140॥
भावार्थ:-जिन श्री
रामचन्द्रजी का स्मरण
करने से ही
भक्तजन तमाम भोग-विलास
को तिनके के
समान त्याग देते
हैं, उन श्री रामचन्द्रजी
की प्रिय पत्नी
और जगत की
माता सीताजी के
लिए यह (भोग-विलास
का त्याग) कुछ
भी आश्चर्य नहीं
है॥140॥
चौपाई :
*
सीय लखन जेहि
बिधि सुखु लहहीं।
सोइ रघुनाथ करहिं
सोइ कहहीं॥
कहहिं पुरातन
कथा कहानी। सुनहिं
लखनु सिय अति
सुखु मानी॥1॥
भावार्थ:-सीताजी और
लक्ष्मणजी को जिस
प्रकार सुख मिले, श्री रघुनाथजी
वही करते और
वही कहते हैं।
भगवान प्राचीन कथाएँ
और कहानियाँ कहते
हैं और लक्ष्मणजी
तथा सीताजी अत्यन्त
सुख मानकर सुनते
हैं॥1॥
*
जब जब रामु
अवध सुधि करहीं।
तब तब बारि
बिलोचन भरहीं॥
सुमिरि मातु
पितु परिजन भाई।
भरत सनेहु सीलु
सेवकाई॥2॥
भावार्थ:-जब-जब श्री
रामचन्द्रजी अयोध्या की याद करते
हैं, तब-तब उनके नेत्रों
में जल भर
आता है। माता-पिता, कुटुम्बियों और
भाइयों तथा भरत के प्रेम,
शील और सेवाभाव
को याद करके-॥2॥
*
कृपासिंधु प्रभु होहिं
दुखारी। धीरजु धरहिं
कुसमउ बिचारी॥
लखि सिय
लखनु बिकल होइ
जाहीं। जिमि पुरुषहि
अनुसर परिछाहीं॥3॥
भावार्थ:-कृपा के
समुद्र प्रभु श्री
रामचन्द्रजी दुःखी हो
जाते हैं, किन्तु फिर
कुसमय समझकर धीरज
धारण कर लेते
हैं। श्री रामचन्द्रजी
को दुःखी देखकर
सीताजी और लक्ष्मणजी
भी व्याकुल हो
जाते हैं, जैसे किसी
मनुष्य की परछाहीं
उस मनुष्य के
समान ही चेष्टा
करती है॥3॥
*
प्रिया बंधु गति
लखि रघुनंदनु। धीर
कृपाल भगत उर
चंदनु॥
लगे कहन
कछु कथा पुनीता।
सुनि सुखु लहहिं
लखनु अरु सीता॥4॥
भावार्थ:-तब धीर, कृपालु और
भक्तों के हृदयों
को शीतल करने
के लिए चंदन
रूप रघुकुल को
आनंदित करने वाले
श्री रामचन्द्रजी प्यारी
पत्नी और भाई
लक्ष्मण की दशा
देखकर कुछ पवित्र
कथाएँ कहने लगते
हैं, जिन्हें सुनकर
लक्ष्मणजी और सीताजी
सुख प्राप्त करते
हैं॥4॥
दोहा :
*
रामु लखन सीता
सहित सोहत परन
निकेत।
जिमि बासव
बस अमरपुर सची
जयंत समेत॥141॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी और
सीताजी सहित श्री
रामचन्द्रजी पर्णकुटी में
ऐसे सुशोभित हैं, जैसे अमरावती
में इन्द्र अपनी
पत्नी शची और
पुत्र जयंत सहित
बसता है॥141॥
चौपाई :
*
जोगवहिं प्रभुसिय लखनहि
कैसें। पलक बिलोचन
गोलक जैसें॥
सेवहिं लखनु
सीय रघुबीरहि। जिमि
अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥1॥
भावार्थ:-प्रभु श्री
रामचन्द्रजी सीताजी और
लक्ष्मणजी की कैसी सँभाल रखते
हैं, जैसे पलकें नेत्रों
के गोलकों की।
इधर लक्ष्मणजी श्री
सीताजी और श्री
रामचन्द्रजी की (अथवा
लक्ष्मणजी और सीताजी
श्री रामचन्द्रजी की)
ऐसी सेवा करते
हैं, जैसे अज्ञानी
मनुष्य शरीर की
करते हैं॥1॥
*
एहि बिधि प्रभु
बन बसहिं सुखारी।
खग मृग सुर
तापस हितकारी॥
कहेउँ राम
बन गवनु सुहावा।
सुनहु सुमंत्र अवध
जिमि आवा॥2॥
भावार्थ:-पक्षी, पशु, देवता और
तपस्वियों के हितकारी
प्रभु इस प्रकार
सुखपूर्वक वन में
निवास कर रहे
हैं। तुलसीदासजी कहते
हैं- मैंने श्री
रामचन्द्रजी का सुंदर
वनगमन कहा। अब
जिस तरह सुमन्त्र
अयोध्या में आए
वह (कथा) सुनो॥2॥
*
फिरेउ निषादु प्रभुहि
पहुँचाई। सचिव सहित
रथ देखेसि आई॥
मंत्री बिकल
बिलोकि निषादू। कहि न जाइ
जस भयउ बिषादू॥3॥
भावार्थ:-प्रभु श्री
रामचन्द्रजी को पहुँचाकर
जब निषादराज लौटा, तब आकर
उसने रथ को
मंत्री (सुमंत्र) सहित
देखा। मंत्री को
व्याकुल देखकर निषाद
को जैसा दुःख
हुआ, वह कहा
नहीं जाता॥3॥
*
राम राम सिय
लखन पुकारी। परेउ
धरनितल ब्याकुल भारी॥
देखि दखिन
दिसि हय हिहिनाहीं।
जनु बिनु पंख
बिहग अकुलाहीं॥4॥
भावार्थ:-(निषाद को
अकेले आया देखकर)
सुमंत्र हा राम!
हा राम! हा सीते! हा
लक्ष्मण! पुकारते हुए, बहुत व्याकुल
होकर धरती पर गिर पड़े।
(रथ के) घोड़े
दक्षिण दिशा की
ओर (जिधर श्री
रामचन्द्रजी गए थे)
देख-देखकर हिनहिनाते हैं।
मानो बिना पंख
के पक्षी व्याकुल
हो रहे हों॥4॥
दोहा :
*
नहिं तृन चरहिं
न पिअहिं जलु
मोचहिं लोचन बारि।
ब्याकुल भए
निषाद सब रघुबर
बाजि निहारि॥142॥
भावार्थ:-वे न
तो घास चरते
हैं, न पानी पीते
हैं। केवल आँखों
से जल बहा
रहे हैं। श्री
रामचन्द्रजी के घोड़ों
को इस दशा
में देखकर सब
निषाद व्याकुल हो
गए॥142॥
चौपाई :
*
धरि धीरजु तब
कहइ निषादू। अब
सुमंत्र परिहरहु बिषादू॥
तुम्ह पंडित
परमारथ ग्याता। धरहु
धीर लखि बिमुख
बिधाता॥1॥
भावार्थ:-तब धीरज
धरकर निषादराज कहने
लगा- हे सुमंत्रजी!
अब विषाद को
छोड़िए। आप पंडित
और परमार्थ के
जानने वाले हैं।
विधाता को प्रतिकूल
जानकर धैर्य धारण
कीजिए॥1॥
*
बिबिधि कथा कहि
कहि मृदु बानी।
रथ बैठारेउ बरबस
आनी॥
सोक सिथिल
रथु सकइ न
हाँकी। रघुबर बिरह
पीर उर बाँकी॥2॥
भावार्थ:-कोमल वाणी
से भाँति-भाँति की
कथाएँ कहकर निषाद
ने जबर्दस्ती लाकर
सुमंत्र को रथ
पर बैठाया, परन्तु शोक
के मारे वे
इतने शिथिल हो
गए कि रथ
को हाँक नहीं
सकते। उनके हृदय
में श्री रामचन्द्रजी
के विरह की
बड़ी तीव्र वेदना
है॥2॥
*
चरफराहिं मग चलहिं
न घोरे। बन
मृग मनहुँ आनि
रथ जोरे॥
अढ़ुकि परहिं
फिरि हेरहिं पीछें।
राम बियोगि बिकल
दुख तीछें॥3॥
भावार्थ:-घोड़े तड़फड़ाते
हैं और (ठीक)
रास्ते पर नहीं
चलते। मानो जंगली
पशु लाकर रथ
में जोत दिए
गए हों। वे
श्री रामचन्द्रजी के
वियोगी घोड़े कभी
ठोकर खाकर गिर
पड़ते हैं, कभी घूमकर
पीछे की ओर
देखने लगते हैं।
वे तीक्ष्ण दुःख से
व्याकुल हैं॥3॥
*जो कह
रामु लखनु बैदेही।
हिंकरि हिंकरि हित
हेरहिं तेही॥
बाजि बिरह
गति कहि किमि
जाती। बिनु मनि
फनिक बिकल जेहिं
भाँती॥4॥
भावार्थ:-जो कोई
राम, लक्ष्मण या जानकी
का नाम ले
लेता है, घोड़े हिकर-हिकरकर
उसकी ओर प्यार
से देखने लगते
हैं। घोड़ों की
विरह दशा कैसे
कही जा सकती
है? वे ऐसे
व्याकुल हैं, जैसे मणि
के बिना साँप
व्याकुल होता है॥4॥
सुमन्त्र का
अयोध्या को लौटना
और सर्वत्र शोक
देखना
दोहा :
*
भयउ निषादु बिषादबस
देखत सचिव तुरंग।
बोलि सुसेवक
चारि तब दिए
सारथी संग॥143॥
भावार्थ:-मंत्री और
घोड़ों की यह दशा देखकर
निषादराज विषाद के
वश हो गया।
तब उसने अपने
चार उत्तम सेवक
बुलाकर सारथी के
साथ कर दिए॥143॥
चौपाई :
*
गुह सारथिहि फिरेउ
पहुँचाई। बिरहु बिषादु
बरनि नहिं जाई॥
चले अवध
लेइ रथहि निषादा।
होहिं छनहिं छन
मगन बिषादा॥1॥
भावार्थ:-निषादराज गुह
सारथी (सुमंत्रजी) को
पहुँचाकर (विदा करके)
लौटा। उसके विरह
और दुःख का
वर्णन नहीं किया
जा सकता। वे
चारों निषाद रथ
लेकर अवध को
चले। (सुमंत्र और
घोड़ों को देख-देखकर)
वे भी क्षण-क्षणभर
विषाद में डूबे
जाते थे॥1॥
*
सोच सुमंत्र बिकल
दुख दीना। धिग
जीवन रघुबीर बिहीना॥
रहिहि न
अंतहुँ अधम सरीरू।
जसु न लहेउ
बिछुरत रघुबीरू॥2॥
भावार्थ:-व्याकुल और
दुःख से दीन
हुए सुमंत्रजी सोचते
हैं कि श्री
रघुवीर के बिना
जीना धिक्कार है।
आखिर यह अधम
शरीर रहेगा तो
है ही नहीं।
अभी श्री रामचन्द्रजी
के बिछुड़ते ही
छूटकर इसने यश
(क्यों) नहीं ले
लिया॥2॥
*
भए अजस अघ
भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं
करत पयाना॥
अहह मंद
मनु अवसर चूका।
अजहुँ न हृदय
होत दुइ टूका॥3॥
भावार्थ:-ये प्राण
अपयश और पाप के भाँडे
हो गए। अब
ये किस कारण
कूच नहीं करते
(निकलते नहीं)? हाय! नीच
मन (बड़ा अच्छा)
मौका चूक गया।
अब भी तो हृदय के
दो टुकड़े नहीं
हो जाते!॥3॥
*
मीजि हाथ सिरु
धुनि पछिताई। मनहुँ
कृपन धन रासि
गवाँई॥
बिरिद बाँधि
बर बीरु कहाई।
चलेउ समर जनु
सुभट पराई॥4॥
भावार्थ:-सुमंत्र हाथ
मल-मलकर और सिर
पीट-पीटकर पछताते हैं।
मानो कोई कंजूस
धन का खजाना
खो बैठा हो।
वे इस प्रकार
चले मानो कोई
बड़ा योद्धा वीर
का बाना पहनकर
और उत्तम शूरवीर
कहलाकर युद्ध से भाग चला
हो!॥4॥
दोहा :
*
बिप्र बिबेकी बेदबिद
संमत साधु सुजाति।
जिमि धोखें
मदपान कर सचिव
सोच तेहि भाँति॥144॥
भावार्थ:-जैसे कोई
विवेकशील,
वेद का ज्ञाता, साधुसम्मत आचरणों
वाला और उत्तम
जाति का (कुलीन)
ब्राह्मण धोखे से
मदिरा पी ले
और पीछे पछतावे, उसी प्रकार
मंत्री सुमंत्र सोच कर रहे
(पछता रहे) हैं॥144॥
चौपाई :
*
जिमि कुलीन तिय
साधु सयानी। पतिदेवता
करम मन बानी॥
रहै करम
बस परिहरि नाहू।
सचिव हृदयँ तिमि
दारुन दाहू॥1॥
भावार्थ:-जैसे किसी
उत्तम कुलवाली, साधु स्वाभाव
की, समझदार और मन, वचन, कर्म से
पति को ही
देवता मानने वाली
पतिव्रता स्त्री को
भाग्यवश पति को
छोड़कर (पति से
अलग) रहना पड़े,
उस समय उसके
हृदय में जैसे
भयानक संताप होता
है, वैसे ही
मंत्री के हृदय
में हो रहा
है॥1॥
*
लोचन सजल डीठि
भइ थोरी। सुनइ
न श्रवन बिकल
मति भोरी॥
सूखहिं अधर
लागि मुहँ लाटी।
जिउ न जाइ
उर अवधि कपाटी॥2॥
भावार्थ:-नेत्रों में
जल भरा है, दृष्टि मंद
हो गई है।
कानों से सुनाई
नहीं पड़ता, व्याकुल हुई
बुद्धि बेठिकाने हो रही है।
होठ सूख रहे
हैं, मुँह में
लाटी लग गई है, किन्तु (ये
सब मृत्यु के
लक्षण हो जाने
पर भी) प्राण
नहीं निकलते, क्योंकि हृदय
में अवधि रूपी
किवाड़ लगे हैं
(अर्थात चौदह वर्ष
बीत जाने पर
भगवान फिर मिलेंगे, यही आशा
रुकावट डाल रही
है)॥2॥
*
बिबरन भयउ न
जाइ निहारी। मारेसि
मनहुँ पिता महतारी॥
हानि गलानि
बिपुल मन ब्यापी।
जमपुर पंथ सोच
जिमि पापी॥3॥
भावार्थ:-सुमंत्रजी के
मुख का रंग
बदल गया है, जो देखा
नहीं जाता। ऐसा
मालूम होता है
मानो इन्होंने माता-पिता
को मार डाला
हो। उनके मन
में रामवियोग रूपी
हानि की महान
ग्लानि (पीड़ा) छा
रही है, जैसे कोई
पापी मनुष्य नरक
को जाता हुआ
रास्ते में सोच कर रहा
हो॥3॥
*
बचनु न आव
हृदयँ पछिताई। अवध
काह मैं देखब
जाई॥
राम रहित
रथ देखिहि जोई।
सकुचिहि मोहि बिलोकत
सोई॥4॥
भावार्थ:-मुँह से
वचन नहीं निकलते।
हृदय में पछताते
हैं कि मैं
अयोध्या में जाकर
क्या देखूँगा? श्री रामचन्द्रजी
से शून्य रथ को जो
भी देखेगा, वही मुझे
देखने में संकोच
करेगा (अर्थात मेरा
मुँह नहीं देखना
चाहेगा)॥4॥
दोहा :
*
धाइ पूँछिहहिं मोहि
जब बिकल नगर
नर नारि।
उतरु देब
मैं सबहि तब
हृदयँ बज्रु बैठारि॥145॥
भावार्थ:-नगर के
सब व्याकुल स्त्री-पुरुष
जब दौड़कर मुझसे
पूछेंगे, तब मैं हृदय
पर वज्र रखकर
सबको उत्तर दूँगा॥145॥
चौपाई :
*
पुछिहहिं दीन दुखित
सब माता। कहब
काह मैं तिन्हहि
बिधाता।
पूछिहि जबहिं
लखन महतारी। कहिहउँ
कवन सँदेस सुखारी॥1॥
भावार्थ:-जब दीन-दुःखी
सब माताएँ पूछेंगी, तब हे
विधाता! मैं उन्हें
क्या कहूँगा? जब लक्ष्मणजी
की माता मुझसे
पूछेंगी, तब मैं
उन्हें कौन सा
सुखदायी सँदेसा कहूँगा?॥1॥
*
राम जननि जब
आइहि धाई। सुमिरि
बच्छु जिमि धेनु
लवाई॥
पूँछत उतरु
देब मैं तेही।
गे बनु राम
लखनु बैदेही॥2॥
भावार्थ:-श्री रामजी
की माता जब इस प्रकार
दौड़ी आवेंगी जैसे
नई ब्यायी हुई
गौ बछड़े को याद करके
दौड़ी आती है, तब उनके
पूछने पर मैं
उन्हें यह उत्तर
दूँगा कि श्री
राम, लक्ष्मण, सीता वन
को चले गए!॥2॥
*
जोई पूँछिहि तेहि
ऊतरु देबा। जाइ
अवध अब यहु
सुखु लेबा॥
पूँछिहि जबहिं
राउ दुख दीना।
जिवनु जासु रघुनाथ
अधीना॥3॥
भावार्थ:-जो भी पूछेगा उसे
यही उत्तर देना
पड़ेगा! हाय! अयोध्या
जाकर अब मुझे
यही सुख लेना
है! जब दुःख
से दीन महाराज, जिनका जीवन
श्री रघुनाथजी के
(दर्शन के) ही
अधीन है, मुझसे पूछेंगे,॥3॥
*
देहउँ उतरु कौनु
मुहु लाई। आयउँ
कुसल कुअँर पहुँचाई॥
सुनत लखन
सिय राम सँदेसू।
तृन जिमि तनु
परिहरिहि नरेसू॥4॥
भावार्थ:-तब मैं
कौन सा मुँह
लेकर उन्हें उत्तर
दूँगा कि मैं
राजकुमारों को कुशल
पूर्वक पहुँचा आया
हूँ! लक्ष्मण, सीता और
श्रीराम का समाचार
सुनते ही महाराज
तिनके की तरह
शरीर को त्याग
देंगे॥4॥
दोहा :
*
हृदउ न बिदरेउ
पंक जिमि बिछुरत
प्रीतमु नीरु।
जानत हौं
मोहि दीन्ह बिधि
यहु जातना सरीरु॥146॥
भावार्थ:-प्रियतम (श्री
रामजी) रूपी जल के बिछुड़ते
ही मेरा हृदय
कीचड़ की तरह
फट नहीं गया, इससे मैं
जानता हूँ कि
विधाता ने मुझे
यह 'यातना शरीर'
ही दिया है
(जो पापी जीवों
को नरक भोगने
के लिए मिलता
है)॥146॥
चौपाई :
*
एहि बिधि करत
पंथ पछितावा। तमसा
तीर तुरत रथु
आवा॥
बिदा किए
करि बिनय निषादा।
फिरे पायँ परि
बिकल बिषादा॥1॥
भावार्थ:-सुमंत्र इस
प्रकार मार्ग में
पछतावा कर रहे थे, इतने में
ही रथ तुरंत
तमसा नदी के
तट पर आ
पहुँचा। मंत्री ने
विनय करके चारों
निषादों को विदा
किया। वे विषाद
से व्याकुल होते
हुए सुमंत्र के
पैरों पड़कर लौटे॥1॥
*
पैठत नगर सचिव
सकुचाई। जनु मारेसि
गुर बाँभन गाई॥
बैठि बिटप
तर दिवसु गवाँवा।
साँझ समय तब
अवसरु पावा॥2॥
भावार्थ:-नगर में
प्रवेश करते मंत्री
(ग्लानि के कारण)
ऐसे सकुचाते हैं, मानो गुरु,
ब्राह्मण या गौ
को मारकर आए
हों। सारा दिन
एक पेड़ के
नीचे बैठकर बिताया।
जब संध्या हुई
तब मौका मिला॥2॥
*
अवध प्रबेसु कीन्ह
अँधिआरें। पैठ भवन
रथु राखि दुआरें॥
जिन्ह जिन्ह
समाचार सुनि पाए।
भूप द्वार रथु
देखन आए॥3॥
भावार्थ:-अँधेरा होने
पर उन्होंने अयोध्या
में प्रवेश किया
और रथ को
दरवाजे पर खड़ा
करके वे (चुपके
से) महल में
घुसे। जिन-जिन लोगों
ने यह समाचार
सुना पाया, वे सभी
रथ देखने को
राजद्वार पर आए॥3॥
*
रथु पहिचानि बिकल
लखि घोरे। गरहिं
गात जिमि आतप
ओरे॥
नगर नारि
नर ब्याकुल कैसें।
निघटत नीर मीनगन
जैसें॥4॥
भावार्थ:-रथ को पहचानकर और
घोड़ों को व्याकुल
देखकर उनके शरीर
ऐसे गले जा
रहे हैं (क्षीण
हो रहे हैं)
जैसे घाम में
ओले! नगर के
स्त्री-पुरुष कैसे व्याकुल
हैं, जैसे जल के
घटने पर मछलियाँ
(व्याकुल होती हैं)॥4॥
दोहा :
*
सचिव आगमनु सुनत
सबु बिकल भयउ
रनिवासु।
भवनु भयंकरु
लाग तेहि मानहुँ
प्रेत निवासु॥147॥
भावार्थ:-मंत्री का
(अकेले ही) आना
सुनकर सारा रनिवास
व्याकुल हो गया।
राजमहल उनको ऐसा
भयानक लगा मानो
प्रेतों का निवास
स्थान (श्मशान) हो॥147॥
चौपाई :
*
अति आरति सब
पूँछहिं रानी। उतरु
न आव बिकल
भइ बानी॥
सुनइ न
श्रवन नयन नहिं
सूझा। कहहु कहाँ
नृपु तेहि तेहि
बूझा॥1॥
भावार्थ:-अत्यन्त आर्त
होकर सब रानियाँ
पूछती हैं, पर सुमंत्र
को कुछ उत्तर
नहीं आता, उनकी वाणी
विकल हो गई
(रुक गई) है।
न कानों से
सुनाई पड़ता है
और न आँखों
से कुछ सूझता
है। वे जो
भी सामने आता
है उस-उससे पूछते
हैं कहो, राजा कहाँ
हैं ?॥1॥
*
दासिन्ह दीख सचिव
बिकलाई। कौसल्या गृहँ
गईं लवाई॥
जाइ सुमंत्र
दीख कस राजा।
अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा॥2॥
भावार्थ:-दासियाँ मंत्री
को व्याकुल देखकर
उन्हें कौसल्याजी के
महल में लिवा
गईं। सुमंत्र ने
जाकर वहाँ राजा
को कैसा (बैठे)
देखा मानो बिना
अमृत का चन्द्रमा
हो॥2॥
*
आसन सयन बिभूषन
हीना। परेउ भूमितल
निपट मलीना॥
लेइ उसासु
सोच एहि भाँती।
सुरपुर तें जनु
खँसेउ जजाती॥3॥
भावार्थ:-राजा आसन, शय्या और
आभूषणों से रहित
बिलकुल मलिन (उदास)
पृथ्वी पर पड़े
हुए हैं। वे
लंबी साँसें लेकर
इस प्रकार सोच
करते हैं, मानो राजा
ययाति स्वर्ग से
गिरकर सोच कर
रहे हों॥3॥
*
लेत सोच भरि
छिनु छिनु छाती।
जनु जरि पंख
परेउ संपाती॥
राम राम
कह राम सनेही।
पुनि कह राम
लखन बैदेही॥4॥
भावार्थ:-राजा क्षण-क्षण
में सोच से
छाती भर लेते
हैं। ऐसी विकल
दशा है मानो
(गीध राज जटायु
का भाई) सम्पाती
पंखों के जल
जाने पर गिर
पड़ा हो। राजा
(बार-बार) 'राम, राम' 'हा स्नेही
(प्यारे) राम!' कहते हैं,
फिर 'हा राम, हा लक्ष्मण, हा जानकी'
ऐसा कहने लगते
हैं॥4॥
दशरथ-सुमन्त्र संवाद, दशरथ मरण
दोहा :
*
देखि सचिवँ जय
जीव कहि कीन्हेउ
दंड प्रनामु।
सुनत उठेउ
ब्याकुल नृपति कहु
सुमंत्र कहँ रामु॥148॥
भावार्थ:-मंत्री ने
देखकर 'जयजीव' कहकर दण्डवत्
प्रणाम किया। सुनते
ही राजा व्याकुल
होकर उठे और
बोले- सुमंत्र! कहो,
राम कहाँ हैं ?॥148॥
चौपाई :
*
भूप सुमंत्रु लीन्ह
उर लाई। बूड़त
कछु अधार जनु
पाई॥
सहित सनेह
निकट बैठारी। पूँछत
राउ नयन भरि
बारी॥1॥
भावार्थ:-राजा ने
सुमंत्र को हृदय
से लगा लिया।
मानो डूबते हुए
आदमी को कुछ
सहारा मिल गया
हो। मंत्री को
स्नेह के साथ
पास बैठाकर नेत्रों
में जल भरकर
राजा पूछने लगे-॥1॥
*
राम कुसल कहु
सखा सनेही। कहँ
रघुनाथु लखनु बैदेही॥
आने फेरि
कि बनहि सिधाए।
सुनत सचिव लोचन
जल छाए॥2॥
भावार्थ:-हे मेरे
प्रेमी सखा! श्री
राम की कुशल
कहो। बताओ, श्री राम,
लक्ष्मण और जानकी
कहाँ हैं? उन्हें लौटा
लाए हो कि
वे वन को
चले गए? यह सुनते
ही मंत्री के
नेत्रों में जल
भर आया॥2॥
*
सोक बिकल पुनि
पूँछ नरेसू। कहु
सिय राम लखन
संदेसू॥
राम रूप
गुन सील सुभाऊ।
सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ॥3॥
भावार्थ:-शोक से
व्याकुल होकर राजा
फिर पूछने लगे-
सीता, राम और लक्ष्मण
का संदेसा तो
कहो। श्री रामचन्द्रजी
के रूप, गुण, शील और
स्वभाव को याद
कर-करके राजा हृदय
में सोच करते
हैं॥3॥
*
राउ सुनाइ दीन्ह
बनबासू। सुनि मन
भयउ न हरषु
हराँसू॥
सो
सुत बिछुरत गए
न प्राना। को
पापी बड़ मोहि
समाना॥4॥
भावार्थ:-(और कहते
हैं-) मैंने राजा
होने की बात
सुनाकर वनवास दे
दिया, यह सुनकर भी
जिस (राम) के
मन में हर्ष
और विषाद नहीं
हुआ, ऐसे पुत्र
के बिछुड़ने पर
भी मेरे प्राण
नहीं गए, तब मेरे
समान बड़ा पापी
कौन होगा ?॥4॥
दोहा :
*
सखा रामु सिय
लखनु जहँ तहाँ
मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त
चाहत चलन अब
प्रान कहउँ सतिभाउ॥149॥
भावार्थ:-हे सखा!
श्री राम, जानकी और
लक्ष्मण जहाँ हैं,
मुझे भी वहीं
पहुँचा दो। नहीं
तो मैं सत्य
भाव से कहता
हूँ कि मेरे
प्राण अब चलना
ही चाहते हैं॥149॥
चौपाई :
*
पुनि पुनि पूँछत
मंत्रिहि राऊ। प्रियतम
सुअन सँदेस सुनाऊ॥
करहि सखा
सोइ बेगि उपाऊ।
रामु लखनु सिय
नयन देखाऊ॥1॥
भावार्थ:-राजा बार-बार
मंत्री से पूछते
हैं- मेरे प्रियतम
पुत्रों का संदेसा
सुनाओ। हे सखा!
तुम तुरंत वही
उपाय करो जिससे
श्री राम, लक्ष्मण और
सीता को मुझे
आँखों दिखा दो॥1॥
*
सचिव धीर धरि
कह मृदु बानी।
महाराज तुम्ह पंडित
ग्यानी॥
बीर सुधीर
धुरंधर देवा। साधु
समाजु सदा तुम्ह
सेवा॥2॥
भावार्थ:-मंत्री धीरज
धरकर कोमल वाणी
बोले- महाराज! आप
पंडित और ज्ञानी
हैं। हे देव!
आप शूरवीर तथा
उत्तम धैर्यवान पुरुषों
में श्रेष्ठ हैं।
आपने सदा साधुओं
के समाज की
सेवा की है॥2॥
*
जनम मरन सब
दुख सुख भोगा।
हानि लाभु प्रिय
मिलन बियोगा॥
काल करम
बस होहिं गोसाईं।
बरबस राति दिवस
की नाईं॥3॥
भावार्थ:-जन्म-मरण, सुख-दुःख के भोग, हानि-लाभ, प्यारों का
मिलना-बिछुड़ना, ये सब हे
स्वामी! काल और
कर्म के अधीन
रात और दिन
की तरह बरबस
होते रहते हैं॥3॥
*
सुख हरषहिं जड़
दुख बिलखाहीं। दोउ
सम धीर धरहिं
मन माहीं॥
धीरज धरहु
बिबेकु बिचारी। छाड़िअ
सोच सकल हितकारी॥4॥
भावार्थ:-मूर्ख लोग
सुख में हर्षित
होते और दुःख
में रोते हैं, पर धीर
पुरुष अपने मन
में दोनों को
समान समझते हैं।
हे सबके हितकारी
(रक्षक)! आप विवेक
विचारकर धीरज धरिए
और शोक का
परित्याग कीजिए॥4॥
दोहा :
*
प्रथम बासु तमसा
भयउ दूसर सुरसरि
तीर।
न्हाइ रहे
जलपानु करि सिय
समेत दोउ बीर॥150॥
भावार्थ:-श्री रामजी
का पहला निवास
(मुकाम) तमसा के
तट पर हुआ, दूसरा गंगातीर
पर। सीताजी सहित
दोनों भाई उस
दिन स्नान करके
जल पीकर ही
रहे॥150॥
चौपाई :
*
केवट कीन्हि बहुत
सेवकाई। सो जामिनि
सिंगरौर गवाँई॥
होत प्रात
बट छीरु मगावा।
जटा मुकुट निज
सीस बनावा॥1॥
भावार्थ:-केवट (निषादराज)
ने बहुत सेवा
की। वह रात
सिंगरौर (श्रृंगवेरपुर) में
ही बिताई। दूसरे
दिन सबेरा होते
ही बड़ का
दूध मँगवाया और
उससे श्री राम-लक्ष्मण
ने अपने सिरों
पर जटाओं के
मुकुट बनाए॥1॥
*
राम सखाँ तब
नाव मगाई। प्रिया
चढ़ाई चढ़े रघुराई॥
लखन बान
धनु धरे बनाई।
आपु चढ़े प्रभु
आयसु पाई॥2॥
भावार्थ:-तब श्री
रामचन्द्रजी के सखा
निषादराज ने नाव
मँगवाई। पहले प्रिया
सीताजी को उस
पर चढ़ाकर फिर
श्री रघुनाथजी चढ़े।
फिर लक्ष्मणजी ने
धनुष-बाण सजाकर रखे
और प्रभु श्री
रामचन्द्रजी की आज्ञा
पाकर स्वयं चढ़े॥2॥
*
बिकल बिलोकि मोहि
रघुबीरा। बोले मधुर
बचन धरि धीरा॥
तात प्रनामु
तात सन कहेहू।
बार बार पद
पंकज गहेहू॥3॥
भावार्थ:-मुझे व्याकुल
देखकर श्री रामचन्द्रजी
धीरज धरकर मधुर
वचन बोले- हे
तात! पिताजी से
मेरा प्रणाम कहना
और मेरी ओर
से बार-बार उनके
चरण कमल पकड़ना॥3॥
*
करबि पायँ परि
बिनय बहोरी। तात करिअ जनि
चिंता मोरी॥
बन
मग मंगल कुसल
हमारें। कृपा अनुग्रह
पुन्य तुम्हारें॥4॥
भावार्थ:-फिर पाँव
पकड़कर विनती करना
कि हे पिताजी!
आप मेरी चिंता
न कीजिए। आपकी
कृपा, अनुग्रह और पुण्य
से वन में
और मार्ग में
हमारा कुशल-मंगल होगा॥4॥
छन्द :
*
तुम्हरें अनुग्रह तात
कानन जात सब
सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु
कुसल देखन पाय
पुनि फिरि आइहौं॥
जननीं सकल
परितोषि परि परि
पायँ करि बिनती
घनी।
तुलसी करहु
सोइ जतनु जेहिं
कुसली रहहिं कोसलधनी॥
भावार्थ:-हे पिताजी!
आपके अनुग्रह से मैं वन
जाते हुए सब
प्रकार का सुख
पाऊँगा। आज्ञा का
भलीभाँति पालन करके
चरणों का दर्शन
करने कुशल पूर्वक
फिर लौट आऊँगा।
सब माताओं के
पैरों पड़-पड़कर उनका
समाधान करके और
उनसे बहुत विनती
करके तुलसीदास कहते
हैं- तुम वही
प्रयत्न करना, जिसमें कोसलपति
पिताजी कुशल रहें।
सोरठा :
*
गुर सन कहब
सँदेसु बार बार
पद पदुम गहि।
करब सोइ
उपदेसु जेहिं न
सोच मोहि अवधपति॥151॥
भावार्थ:-बार-बार चरण
कमलों को पकड़कर
गुरु वशिष्ठजी से
मेरा संदेसा कहना
कि वे वही
उपदेश दें, जिससे अवधपति
पिताजी मेरा सोच न करें॥151॥
चौपाई :
*
पुरजन परिजन सकल
निहोरी। तात सुनाएहु
बिनती मोरी॥
सोइ सब
भाँति मोर हितकारी।
जातें रह नरनाहु
सुखारी॥1॥
भावार्थ:-हे तात!
सब पुरवासियों और
कुटुम्बियों से निहोरा
(अनुरोध) करके मेरी
विनती सुनाना कि
वही मनुष्य मेरा
सब प्रकार से
हितकारी है, जिसकी चेष्टा
से महाराज सुखी
रहें॥1॥
*
कहब सँदेसु भरत
के आएँ। नीति
न तजिअ राजपदु
पाएँ॥
पालेहु प्रजहि
करम मन बानी।
सेएहु मातु सकल
सम जानी॥2॥
भावार्थ:-भरत के
आने पर उनको
मेरा संदेसा कहना
कि राजा का
पद पा जाने
पर नीति न
छोड़ देना, कर्म, वचन और
मन से प्रजा
का पालन करना
और सब माताओं
को समान जानकर
उनकी सेवा करना॥2॥
*
ओर निबाहेहु भायप
भाई। करि पितु
मातु सुजन सेवकाई॥
तात भाँति
तेहि राखब राऊ।
सोच मोर जेहिं
करै न काऊ॥3॥
भावार्थ:-और हे
भाई! पिता, माता और
स्वजनों की सेवा
करके भाईपन को
अंत तक निबाहना।
हे तात! राजा
(पिताजी) को उसी
प्रकार से रखना
जिससे वे कभी
(किसी तरह भी)
मेरा सोच न
करें॥3॥
*
लखन कहे कछु
बचन कठोरा। बरजि
राम पुनि मोहि
निहोरा॥
बार बार
निज सपथ देवाई।
कहबि न तात
लखन लारिकाई॥4॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी ने
कुछ कठोर वचन
कहे, किन्तु श्री रामजी
ने उन्हें बरजकर
फिर मुझसे अनुरोध
किया और बार-बार
अपनी सौगंध दिलाई
(और कहा) हे
तात! लक्ष्मण का
लड़कपन वहाँ न
कहना॥4॥
दोहा :
*
कहि प्रनामु कछु
कहन लिय सिय
भइ सिथिल सनेह।
थकित बचन
लोचन सजल पुलक
पल्लवित देह॥152॥
भावार्थ:-प्रणाम कर
सीताजी भी कुछ
कहने लगी थीं, परन्तु स्नेहवश
वे शिथिल हो
गईं। उनकी वाणी
रुक गई, नेत्रों में
जल भर आया
और शरीर रोमांच
से व्याप्त हो
गया॥152॥
चौपाई :
*
तेहि अवसर रघुबर
रुख पाई। केवट
पारहि नाव चलाई॥
रघुकुलतिलक चले
एहि भाँती। देखउँ
ठाढ़ कुलिस धरि
छाती॥1॥
भावार्थ:-उसी समय
श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर
केवट ने पार
जाने के लिए
नाव चला दी। इस प्रकार
रघुवंश तिलक श्री
रामचन्द्रजी चल दिए
और मैं छाती पर वज्र
रखकर खड़ा-खड़ा देखता
रहा॥1॥
*
मैं आपन किमि
कहौं कलेसू। जिअत
फिरेउँ लेइ राम
सँदेसू॥
अस
कहि सचिव बचन
रहि गयऊ। हानि
गलानि सोच बस
भयऊ॥2॥
भावार्थ:-मैं अपने
क्लेश को कैसे
कहूँ, जो श्री रामजी
का यह संदेसा
लेकर जीता ही
लौट आया! ऐसा
कहकर मंत्री की
वाणी रुक गई
(वे चुप हो
गए) और वे
हानि की ग्लानि
और सोच के
वश हो गए॥2॥
*
सूत बचन सुनतहिं
नरनाहू। परेउ धरनि
उर दारुन दाहू॥
तलफत बिषम
मोह मन मापा।
माजा मनहुँ मीन
कहुँ ब्यापा॥3॥
भावार्थ:-सारथी सुमंत्र
के वचन सुनते
ही राजा पृथ्वी
पर गिर पड़े, उनके हृदय
में भयानक जलन
होने लगी। वे
तड़पने लगे, उनका मन
भीषण मोह से
व्याकुल हो गया।
मानो मछली को
माँजा व्याप गया
हो (पहली वर्षा
का जल लग
गया हो)॥3॥
*
करि बिलाप सब
रोवहिं रानी। महा
बिपति किमि जाइ
बखानी॥
सुनि बिलाप
दुखहू दुखु लागा।
धीरजहू कर धीरजु
भागा॥4॥
भावार्थ:-सब रानियाँ
विलाप करके रो रही हैं।
उस महान विपत्ति
का कैसे वर्णन
किया जाए? उस समय
के विलाप को
सुनकर दुःख को
भी दुःख लगा और धीरज
का भी धीरज
भाग गया!॥4॥
दोहा :
*
भयउ कोलाहलु अवध
अति सुनि नृप राउर
सोरु।
बिपुल बिहग
बन परेउ निसि
मानहुँ कुलिस कठोरु॥153॥
भावार्थ:-राजा के
रावले (रनिवास) में
(रोने का) शोर
सुनकर अयोध्या भर
में बड़ा भारी
कुहराम मच गया!
(ऐसा जान पड़ता
था) मानो पक्षियों
के विशाल वन
में रात के
समय कठोर वज्र
गिरा हो॥153॥
चौपाई :
*
प्रान कंठगत भयउ
भुआलू। मनि बिहीन
जनु ब्याकुल ब्यालू॥
इंद्रीं सकल
बिकल भइँ भारी।
जनु सर सरसिज
बनु बिनु बारी॥1॥
भावार्थ:-राजा के
प्राण कंठ में आ गए।
मानो मणि के
बिना साँप व्याकुल
(मरणासन्न) हो गया
हो। इन्द्रियाँ सब
बहुत ही विकल
हो गईं, मानो बिना
जल के तालाब
में कमलों का
वन मुरझा गया
हो॥1॥
*
कौसल्याँ नृपु दीख
मलाना। रबिकुल रबि
अँथयउ जियँ जाना॥
उर
धरि धीर राम
महतारी। बोली बचन
समय अनुसारी॥2॥
भावार्थ:-कौसल्याजी ने
राजा को बहुत
दुःखी देखकर अपने
हृदय में जान
लिया कि अब
सूर्यकुल का सूर्य
अस्त हो चला!
तब श्री रामचन्द्रजी
की माता कौसल्या
हृदय में धीरज
धरकर समय के
अनुकूल वचन बोलीं-॥2॥
*
नाथ समुझि मन
करिअ बिचारू। राम
बियोग पयोधि अपारू॥
करनधार तुम्ह
अवध जहाजू। चढ़ेउ
सकल प्रिय पथिक
समाजू॥3॥
भावार्थ:-हे नाथ!
आप मन में
समझ कर विचार
कीजिए कि श्री
रामचन्द्र का वियोग
अपार समुद्र है।
अयोध्या जहाज है
और आप उसके
कर्णधार (खेने वाले)
हैं। सब प्रियजन
(कुटुम्बी और प्रजा)
ही यात्रियों का
समाज है, जो इस
जहाज पर चढ़ा
हुआ है॥3॥
*
धीरजु धरिअ त
पाइअ पारू। नाहिं
त बूड़िहि सबु
परिवारू॥
जौं जियँ
धरिअ बिनय पिय
मोरी। रामु लखनु
सिय मिलहिं बहोरी॥4॥
भावार्थ:-आप धीरज
धरिएगा, तो सब पार
पहुँच जाएँगे। नहीं
तो सारा परिवार
डूब जाएगा। हे
प्रिय स्वामी! यदि
मेरी विनती हृदय
में धारण कीजिएगा
तो श्री राम,
लक्ष्मण, सीता फिर आ
मिलेंगे॥4॥
दोहा :
*
प्रिया बचन मृदु
सुनत नृपु चितयउ
आँखि उघारि।
तलफत मीन
मलीन जनु सींचत
सीतल बारि॥154॥
भावार्थ:-प्रिय पत्नी
कौसल्या के कोमल
वचन सुनते हुए
राजा ने आँखें
खोलकर देखा! मानो
तड़पती हुई दीन
मछली पर कोई
शीतल जल छिड़क
रहा हो॥154॥
चौपाई :
*
धरि धीरजु उठि
बैठ भुआलू। कहु
सुमंत्र कहँ राम
कृपालू॥
कहाँ लखनु
कहँ रामु सनेही।
कहँ प्रिय पुत्रबधू
बैदेही॥1॥
भावार्थ:-धीरज धरकर
राजा उठ बैठे
और बोले- सुमंत्र!
कहो, कृपालु श्री राम
कहाँ हैं? लक्ष्मण कहाँ
हैं? स्नेही राम
कहाँ हैं? और मेरी
प्यारी बहू जानकी
कहाँ है?॥1॥
*
बिलपत राउ बिकल
बहु भाँती। भइ
जुग सरिस सिराति
न राती॥
तापस अंध
साप सुधि आई।
कौसल्यहि सब कथा
सुनाई॥2॥
भावार्थ:-राजा व्याकुल
होकर बहुत प्रकार
से विलाप कर
रहे हैं। वह
रात युग के
समान बड़ी हो गई, बीतती ही
नहीं। राजा को
अंधे तपस्वी (श्रवणकुमार
के पिता) के शाप की
याद आ गई।
उन्होंने सब कथा
कौसल्या को कह
सुनाई॥2॥
*
भयउ बिकल बरनत
इतिहासा। राम रहित
धिग जीवन आसा॥
सो
तनु राखि करब
मैं काहा। जेहिं
न प्रेम पनु
मोर निबाहा॥3॥
भावार्थ:-उस इतिहास
का वर्णन करते-करते
राजा व्याकुल हो
गए और कहने
लगे कि श्री
राम के बिना
जीने की आशा
को धिक्कार है।
मैं उस शरीर
को रखकर क्या
करूँगा, जिसने मेरा प्रेम
का प्रण नहीं
निबाहा?॥3॥
*
हा रघुनंदन प्रान
पिरीते। तुम्ह बिनु
जिअत बहुत दिन
बीते॥
हा
जानकी लखन हा
रघुबर। हा पितु
हित चित चातक
जलधर॥4॥
भावार्थ:-हा रघुकुल
को आनंद देने
वाले मेरे प्राण
प्यारे राम! तुम्हारे
बिना जीते हुए
मुझे बहुत दिन
बीत गए। हा
जानकी, लक्ष्मण! हा रघुवीर!
हा पिता के
चित्त रूपी चातक
के हित करने
वाले मेघ!॥4॥
दोहा :
*
राम राम कहि
राम कहि राम
राम कहि राम।
तनु परिहरि
रघुबर बिरहँ राउ
गयउ सुरधाम॥155॥
भावार्थ:-राम-राम कहकर, फिर राम
कहकर, फिर राम-राम
कहकर और फिर
राम कहकर राजा
श्री राम के
विरह में शरीर
त्याग कर सुरलोक
को सिधार गए॥155॥
चौपाई :
*
जिअन मरन फलु
दसरथ पावा। अंड
अनेक अमल जसु
छावा॥
जिअत राम
बिधु बदनु निहारा।
राम बिरह करि
मरनु सँवारा॥1॥
भावार्थ:-जीने और
मरने का फल तो दशरथजी ने
ही पाया, जिनका निर्मल
यश अनेकों ब्रह्मांडों
में छा गया।
जीते जी तो श्री रामचन्द्रजी
के चन्द्रमा के
समान मुख को
देखा और श्री
राम के विरह
को निमित्त बनाकर
अपना मरण सुधार
लिया॥1॥
*
सोक बिकल सब
रोवहिं रानी। रूपु
सीलु बलु तेजु
बखानी॥
करहिं बिलाप
अनेक प्रकारा। परहिं
भूमितल बारहिं बारा॥2॥
भावार्थ:-सब रानियाँ
शोक के मारे
व्याकुल होकर रो
रही हैं। वे
राजा के रूप, शील, बल और
तेज का बखान
कर-करके अनेकों प्रकार
से विलाप कर रही हैं
और बार-बार धरती
पर गिर-गिर पड़ती
हैं॥2॥
*
बिलपहिं बिकल दास
अरु दासी। घर
घर रुदनु करहिं
पुरबासी॥
अँथयउ आजु
भानुकुल भानू। धरम
अवधि गुन रूप
निधानू॥3॥
भावार्थ:-दास-दासीगण व्याकुल
होकर विलाप कर रहे हैं
और नगर निवासी
घर-घर रो रहे
हैं। कहते हैं कि आज
धर्म की सीमा, गुण और
रूप के भंडार
सूर्यकुल के सूर्य
अस्त हो गए?॥3॥
*
गारीं सकल कैकइहि
देहीं। नयन बिहीन
कीन्ह जग जेहीं॥
एहि बिधि
बिलपत रैनि बिहानी।
आए सकल महामुनि
ग्यानी॥4॥
भावार्थ:-सब कैकेयी
को गालियाँ देते
हैं, जिसने संसार भर
को बिना नेत्रों
का (अंधा) कर
दिया! इस प्रकार
विलाप करते रात
बीत गई। प्रातःकाल
सब बड़े-बड़े ज्ञानी
मुनि आए॥4॥
मुनि वशिष्ठ
का भरतजी को
बुलाने के लिए
दूत भेजना
दोहा :
*
तब बसिष्ठ मुनि
समय सम कहि
अनेक इतिहास।
सोक नेवारेउ
सबहि कर निज
बिग्यान प्रकास॥156॥
भावार्थ:-तब वशिष्ठ
मुनि ने समय के अनुकूल
अनेक इतिहास कहकर
अपने विज्ञान के
प्रकाश से सबका
शोक दूर किया॥156॥
चौपाई :
*
तेल नावँ भरि
नृप तनु राखा।
दूत बोलाइ बहुरि
अस भाषा॥
धावहु बेगि
भरत पहिं जाहू।
नृप सुधि कतहुँ
कहहु जनि काहू॥1॥
भावार्थ:-वशिष्ठजी ने
नाव में तेल
भरवाकर राजा के
शरीर को उसमें
रखवा दिया। फिर
दूतों को बुलवाकर
उनसे ऐसा कहा-
तुम लोग जल्दी
दौड़कर भरत के
पास जाओ। राजा
की मृत्यु का
समाचार कहीं किसी
से न कहना॥1॥
*
एतनेइ कहेहु भरत
सन जाई। गुर
बोलाइ पठयउ दोउ
भाई॥
सुनि मुनि
आयसु धावन धाए।
चले बेग बर
बाजि लजाए॥2॥
भावार्थ:-जाकर भरत
से इतना ही
कहना कि दोनों
भाइयों को गुरुजी
ने बुलवा भेजा
है। मुनि की
आज्ञा सुनकर धावन
(दूत) दौड़े। वे
अपने वेग से
उत्तम घोड़ों को
भी लजाते हुए
चले॥2॥
*
अनरथु अवध अरंभेउ
जब तें। कुसगुन
होहिं भरत कहुँ
तब तें॥
देखहिं राति
भयानक सपना। जागि
करहिं कटु कोटि
कलपना॥3॥
भावार्थ:-जब से
अयोध्या में अनर्थ
प्रारंभ हुआ, तभी से
भरतजी को अपशकुन
होने लगे। वे
रात को भयंकर
स्वप्न देखते थे
और जागने पर
(उन स्वप्नों के कारण) करोड़ों
(अनेकों) तरह की
बुरी-बुरी कल्पनाएँ किया
करते थे॥3॥
*
बिप्र जेवाँइ देहिं
दिन दाना। सिव
अभिषेक करहिं बिधि
नाना॥
मागहिं हृदयँ
महेस मनाई। कुसल
मातु पितु परिजन
भाई॥4॥
भावार्थ:-(अनिष्टशान्ति के
लिए) वे प्रतिदिन
ब्राह्मणों को भोजन
कराकर दान देते
थे। अनेकों विधियों
से रुद्राभिषेक करते
थे। महादेवजी को
हृदय में मनाकर
उनसे माता-पिता, कुटुम्बी और
भाइयों का कुशल-क्षेम
माँगते थे॥4॥
दोहा :
*
एहि बिधि सोचत
भरत मन धावन
पहुँचे आइ।
गुर अनुसासन
श्रवन सुनि चले
गनेसु मनाई॥157॥
भावार्थ:-भरतजी इस
प्रकार मन में
चिंता कर रहे
थे कि दूत आ पहुँचे।
गुरुजी की आज्ञा
कानों से सुनते
ही वे गणेशजी
को मनाकर चल
पड़े।157॥
चौपाई :
*
चले समीर बेग
हय हाँके। नाघत
सरित सैल बन
बाँके॥
हृदयँ सोचु
बड़ कछु न
सोहाई। अस जानहिं
जियँ जाउँ उड़ाई॥1॥
भावार्थ:-हवा के
समान वेग वाले
घोड़ों को हाँकते
हुए वे विकट
नदी, पहाड़ तथा जंगलों
को लाँघते हुए
चले। उनके हृदय
में बड़ा सोच था, कुछ सुहाता
न था। मन
में ऐसा सोचते
थे कि उड़कर
पहुँच जाऊँ॥1॥
*
एक निमेष बरष
सम जाई। एहि
बिधि भरत नगर
निअराई॥
असगुन होहिं
नगर पैठारा। रटहिं
कुभाँति कुखेत करारा॥2॥
भावार्थ:-एक-एक निमेष
वर्ष के समान
बीत रहा था।
इस प्रकार भरतजी
नगर के निकट
पहुँचे। नगर में
प्रवेश करते समय
अपशकुन होने लगे।
कौए बुरी जगह
बैठकर बुरी तरह से काँव-काँव
कर रहे हैं॥2॥
*
खर सिआर बोलहिं
प्रतिकूला। सुनि सुनि
होइ भरत मन
सूला॥
श्रीहत सर
सरिता बन बागा।
नगरु बिसेषि भयावनु
लागा॥3॥
भावार्थ:-गदहे और
सियार विपरीत बोल
रहे हैं। यह
सुन-सुनकर भरत के
मन में बड़ी
पीड़ा हो रही
है। तालाब, नदी, वन, बगीचे सब
शोभाहीन हो रहे
हैं। नगर बहुत
ही भयानक लग
रहा है॥3॥
*
खग मृग हय
गय जाहिं न
जोए। राम बियोग
कुरोग बिगोए॥
नगर नारि
नर निपट दुखारी।
मनहुँ सबन्हि सब
संपति हारी॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी
के वियोग रूपी
बुरे रोग से
सताए हुए पक्षी-पशु, घोड़े-हाथी (ऐसे
दुःखी हो रहे
हैं कि) देखे
नहीं जाते। नगर
के स्त्री-पुरुष अत्यन्त
दुःखी हो रहे
हैं। मानो सब
अपनी सारी सम्पत्ति
हार बैठे हों॥4॥
*
पुरजन मिलहिं न
कहहिं कछु गवँहि
जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल
पूँछि न सकहिं
भय बिषाद मन
माहिं॥158॥
भावार्थ:-नगर के
लोग मिलते हैं, पर कुछ
कहते नहीं, गौं से
(चुपके से) जोहार
(वंदना) करके चले
जाते हैं। भरतजी
भी किसी से
कुशल नहीं पूछ
सकते, क्योंकि उनके
मन में भय
और विषाद छा
रहा है॥158॥
श्री भरत-शत्रुघ्न
का आगमन और शोक
*
हाट बाट नहिं
जाइ निहारी। जनु
पुर दहँ दिसि
लागि दवारी॥
आवत सुत
सुनि कैकयनंदिनि। हरषी
रबिकुल जलरुह चंदिनि॥1॥
भावार्थ:-बाजार और
रास्ते देखे नहीं
जाते। मानो नगर
में दसों दिशाओं
में दावाग्नि लगी
है! पुत्र को
आते सुनकर सूर्यकुल
रूपी कमल के
लिए चाँदनी रूपी
कैकेयी (बड़ी) हर्षित
हुई॥1॥
*
सजि आरती मुदित
उठि धाई। द्वारेहिं
भेंटि भवन लेइ
आई॥
भरत दुखित
परिवारु निहारा॥ मानहुँ
तुहिन बनज बनु
मारा॥2॥
भावार्थ:-वह आरती
सजाकर आनंद में
भरकर उठ दौड़ी
और दरवाजे पर
ही मिलकर भरत-शत्रुघ्न
को महल में
ले आई। भरत
ने सारे परिवार
को दुःखी देखा।
मानो कमलों के
वन को पाला
मार गया हो॥2॥
*
कैकेई हरषित एहि
भाँती। मनहुँ मुदित
दव लाइ किराती॥
सुतिह ससोच
देखि मनु मारें।
पूँछति नैहर कुसल
हमारें॥3॥
भावार्थ:-एक कैकेयी
ही इस तरह
हर्षित दिखती है
मानो भीलनी जंगल में आग
लगाकर आनंद में
भर रही हो।
पुत्र को सोच वश और
मन मारे (बहुत
उदास) देखकर वह
पूछने लगी- हमारे
नैहर में कुशल
तो है?॥3॥
*
सकल कुसल कहि
भरत सुनाई। पूँछी
निज कुल कुसल
भलाई॥
कहु कहँ
तात कहाँ सब
माता। कहँ सिय
राम लखन प्रिय
भ्राता॥4॥
भावार्थ:-भरतजी ने
सब कुशल कह
सुनाई। फिर अपने
कुल की कुशल-क्षेम
पूछी। (भरतजी ने
कहा-) कहो, पिताजी कहाँ
हैं? मेरी सब
माताएँ कहाँ हैं?
सीताजी और मेरे
प्यारे भाई राम-लक्ष्मण
कहाँ हैं?॥4॥
दोहा :
*
सुनि सुत बचन
सनेहमय कपट नीर
भरि नैन।
भरत श्रवन
मन सूल सम
पापिनि बोली बैन॥159॥
भावार्थ:-पुत्र के
स्नेहमय वचन सुनकर
नेत्रों में कपट
का जल भरकर पापिनी कैकेयी
भरत के कानों
में और मन
में शूल के
समान चुभने वाले
वचन बोली-॥159॥
चौपाई :
*
तात बात मैं
सकल सँवारी। भै
मंथरा सहाय बिचारी॥
कछुक काज
बिधि बीच बिगारेउ।
भूपति सुरपति पुर
पगु धारेउ॥1॥
भावार्थ:-हे तात!
मैंने सारी बात
बना ली थी।
बेचारी मंथरा सहायक
हुई। पर विधाता
ने बीच में
जरा सा काम
बिगाड़ दिया। वह यह कि
राजा देवलोक को
पधार गए॥1॥
*
सुनत भरतु भए
बिबस बिषादा। जनु
सहमेउ करि केहरि
नादा॥
तात तात
हा तात पुकारी।
परे भूमितल ब्याकुल
भारी॥2॥
भावार्थ:-भरत यह
सुनते ही विषाद
के मारे विवश
(बेहाल) हो गए।
मानो सिंह की
गर्जना सुनकर हाथी
सहम गया हो।
वे 'तात! तात! हा
तात!' पुकारते हुए
अत्यन्त व्याकुल होकर
जमीन पर गिर
पड़े॥2॥
*
चलत न देखन
पायउँ तोही। तात
न रामहि सौंपेहु
मोही॥
बहुरि धीर
धरि उठे सँभारी।
कहु पितु मरन
हेतु महतारी॥3॥
भावार्थ:-(और विलाप
करने लगे कि) हे तात!
मैं आपको (स्वर्ग
के लिए) चलते
समय देख भी न सका।
(हाय!) आप मुझे
श्री रामजी को
सौंप भी नहीं
गए! फिर धीरज
धरकर वे सम्हलकर
उठे और बोले-
माता! पिता के
मरने का कारण
तो बताओ॥3॥
*
सुनि सुत बचन
कहति कैकेई। मरमु
पाँछि जनु माहुर
देई॥
आदिहु तें
सब आपनि करनी।
कुटिल कठोर मुदित
मन बरनी॥4॥
भावार्थ:-पुत्र का
वचन सुनकर कैकेयी
कहने लगी। मानो
मर्म स्थान को
पाछकर (चाकू से
चीरकर) उसमें जहर
भर रही हो।
कुटिल और कठोर
कैकेयी ने अपनी
सब करनी शुरू
से (आखिर तक
बड़े) प्रसन्न मन
से सुना दी॥4॥
दोहा :
*
भरतहि बिसरेउ पितु
मरन सुनत राम
बन गौनु।
हेतु अपनपउ
जानि जियँ थकित
रहे धरि मौनु॥160॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी
का वन जाना
सुनकर भरतजी को
पिता का मरण
भूल गया और
हृदय में इस
सारे अनर्थ का
कारण अपने को ही जानकर
वे मौन होकर
स्तम्भित रह गए
(अर्थात उनकी बोली
बंद हो गई
और वे सन्न
रह गए)॥160॥
*
बिकल बिलोकि सुतहि
समुझावति। मनहुँ जरे
पर लोनु लगावति॥
तात राउ
नहिं सोचै जोगू।
बिढ़इ सुकृत जसु
कीन्हेउ भोगू॥1॥
भावार्थ:-पुत्र को
व्याकुल देखकर कैकेयी
समझाने लगी। मानो
जले पर नमक
लगा रही हो।
(वह बोली-) हे
तात! राजा सोच
करने योग्य नहीं
हैं। उन्होंने पुण्य
और यश कमाकर
उसका पर्याप्त भोग
किया॥1॥
*
जीवत सकल जनम
फल पाए। अंत
अमरपति सदन सिधाए॥
अस
अनुमानि सोच परिहरहू।
सहित समाज राज
पुर करहू॥2॥
भावार्थ:-जीवनकाल में
ही उन्होंने जन्म
लेने के सम्पूर्ण
फल पा लिए
और अंत में
वे इन्द्रलोक को
चले गए। ऐसा
विचारकर सोच छोड़
दो और समाज
सहित नगर का
राज्य करो॥2॥
*
सुनि सुठि सहमेउ
राजकुमारू। पाकें छत
जनु लाग अँगारू॥
धीरज धरि
भरि लेहिं उसासा।
पापिनि सबहि भाँति
कुल नासा॥3॥
भावार्थ:-राजकुमार भरतजी
यह सुनकर बहुत
ही सहम गए।
मानो पके घाव
पर अँगार छू
गया हो। उन्होंने
धीरज धरकर बड़ी
लम्बी साँस लेते
हुए कहा- पापिनी!
तूने सभी तरह
से कुल का
नाश कर दिया॥3॥
*
जौं पै कुरुचि
रही अति तोही।
जनमत काहे न
मारे मोही॥
पेड़ काटि
तैं पालउ सींचा।
मीन जिअन निति
बारि उलीचा॥4॥
भावार्थ:-हाय! यदि
तेरी ऐसी ही
अत्यन्त बुरी रुचि
(दुष्ट इच्छा) थी, तो तूने
जन्मते ही मुझे
मार क्यों नहीं
डाला? तूने पेड़
को काटकर पत्ते
को सींचा है
और मछली के
जीने के लिए
पानी को उलीच
डाला! (अर्थात मेरा
हित करने जाकर
उलटा तूने मेरा
अहित कर डाला)॥4॥
दोहा :
*
हंसबंसु दसरथु जनकु
राम लखन से
भाइ।
जननी तूँ
जननी भई बिधि सन कछु
न बसाइ॥161॥
भावार्थ:-मुझे सूर्यवंश
(सा वंश), दशरथजी (सरीखे)
पिता और राम-लक्ष्मण
से भाई मिले।
पर हे जननी!
मुझे जन्म देने
वाली माता तू
हुई! (क्या किया
जाए!) विधाता से
कुछ भी वश
नहीं चलता॥161॥
चौपाई :
*
जब मैं कुमति
कुमत जियँ ठयऊ।
खंड खंड होइ
हृदउ न गयऊ॥
बर
मागत मन भइ
नहिं पीरा। गरि
न जीह मुँह
परेउ न कीरा॥1॥
भावार्थ:-अरी कुमति!
जब तूने हृदय
में यह बुरा
विचार (निश्चय) ठाना, उसी समय
तेरे हृदय के
टुकड़े-टुकड़े (क्यों) न
हो गए? वरदान माँगते
समय तेरे मन
में कुछ भी
पीड़ा नहीं हुई?
तेरी जीभ गल
नहीं गई? तेरे मुँह
में कीड़े नहीं
पड़ गए?॥1॥
*
भूपँ प्रतीति तोरि
किमि कीन्ही। मरन
काल बिधि मति
हरि लीन्ही॥
बिधिहुँ न
नारि हृदय गति
जानी। सकल कपट
अघ अवगुन खानी॥2॥
भावार्थ:-राजा ने
तेरा विश्वास कैसे
कर लिया? (जान पड़ता
है,) विधाता ने
मरने के समय
उनकी बुद्धि हर
ली थी। स्त्रियों
के हृदय की
गति (चाल) विधाता
भी नहीं जान
सके। वह सम्पूर्ण
कपट, पाप और
अवगुणों की खान
है॥2॥
*
सरल सुसील धरम
रत राऊ। सो
किमि जानै तीय
सुभाऊ॥
अस
को जीव जंतु
जग माहीं। जेहि
रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं॥3॥
भावार्थ:-फिर राजा
तो सीधे, सुशील और
धर्मपरायण थे। वे भला, स्त्री स्वभाव
को कैसे जानते?
अरे, जगत के जीव-जन्तुओं
में ऐसा कौन है, जिसे श्री
रघुनाथजी प्राणों के
समान प्यारे नहीं
हैं॥3॥
*
भे अति अहित
रामु तेउ तोहीं।
को तू अहसि
सत्य कहु मोही॥
जो
हसि सो हसि
मुँह मसि लाई।
आँखि ओट उठि
बैठहि जाई॥4॥
भावार्थ:-वे श्री
रामजी भी तुझे
अहित हो गए (वैरी लगे)!
तू कौन है? मुझे सच-सच
कह! तू जो है, सो है,
अब मुँह में
स्याही पोतकर (मुँह
काला करके) उठकर
मेरी आँखों की
ओट में जा
बैठ॥4॥
दोहा :
*
राम बिरोधी हृदय
तें प्रगट कीन्ह
बिधि मोहि।
मो
समान को पातकी
बादि कहउँ कछु
तोहि॥162॥
भावार्थ:-विधाता ने
मुझे श्री रामजी
से विरोध करने
वाले (तेरे) हृदय
से उत्पन्न किया
(अथवा विधाता ने
मुझे हृदय से
राम का विरोधी
जाहिर कर दिया।)
मेरे बराबर पापी
दूसरा कौन है? मैं व्यर्थ
ही तुझे कुछ
कहता हूँ॥162॥
चौपाई :
*
सुनि सत्रुघुन मातु
कुटिलाई। जरहिं गात
रिस कछु न
बसाई॥
तेहि अवसर
कुबरी तहँ आई।
बसन बिभूषन बिबिध
बनाई॥1॥
भावार्थ:-माता की
कुटिलता सुनकर शत्रुघ्नजी
के सब अंग
क्रोध से जल रहे हैं, पर कुछ
वश नहीं चलता।
उसी समय भाँति-भाँति
के कपड़ों और
गहनों से सजकर
कुबरी (मंथरा) वहाँ
आई॥1॥
*
लखि रिस भरेउ
लखन लघु भाई।
बरत अनल घृत
आहुति पाई॥
हुमगि लात
तकि कूबर मारा।
परि मुँह भर
महि करत पुकारा॥2॥
भावार्थ:-उसे (सजी)
देखकर लक्ष्मण के
छोटे भाई शत्रुघ्नजी
क्रोध में भर
गए। मानो जलती
हुई आग को
घी की आहुति
मिल गई हो।
उन्होंने जोर से
तककर कूबड़ पर
एक लात जमा दी। वह
चिल्लाती हुई मुँह
के बल जमीन
पर गिर पड़ी॥2॥
*
कूबर टूटेउ फूट
कपारू। दलित दसन
मुख रुधिर प्रचारू॥
आह
दइअ मैं काह
नसावा। करत नीक
फलु अनइस पावा॥3॥
भावार्थ:-उसका कूबड़
टूट गया, कपाल फूट
गया, दाँत टूट
गए और मुँह
से खून बहने
लगा। (वह कराहती
हुई बोली-) हाय
दैव! मैंने क्या
बिगाड़ा? जो भला
करते बुरा फल
पाया॥3॥
*
सुनि रिपुहन लखि
नख सिख खोटी।
लगे घसीटन धरि
धरि झोंटी॥
भरत दयानिधि
दीन्हि छुड़ाई। कौसल्या
पहिं गे दोउ
भाई॥4॥
भावार्थ:-उसकी यह बात सुनकर
और उसे नख
से शिखा तक
दुष्ट जानकर शत्रुघ्नजी
झोंटा पकड़-पकड़कर उसे
घसीटने लगे। तब
दयानिधि भरतजी ने
उसको छुड़ा दिया
और दोनों भाई
(तुरंत) कौसल्याजी के
पास गए॥4॥
भरत-कौसल्या संवाद
और दशरथजी की
अन्त्येष्टि क्रिया
दोहा :
*
मलिन बसन बिबरन
बिकल कृस शरीर
दुख भार।
कनक कलप
बर बेलि बन
मानहुँ हनी तुसार॥163॥
भावार्थ:-कौसल्याजी मैले
वस्त्र पहने हैं, चेहरे का
रंग बदला हुआ है, व्याकुल हो
रही हैं, दुःख के
बोझ से शरीर
सूख गया है।
ऐसी दिख रही
हैं मानो सोने
की सुंदर कल्पलता
को वन में
पाला मार गया
हो॥163॥
चौपाई :
*
भरतहि देखि मातु
उठि धाई। मुरुचित
अवनि परी झइँ
आई॥
देखत भरतु
बिकल भए भारी।
परे चरन तन
दसा बिसारी॥1॥
भावार्थ:-भरत को
देखते ही माता
कौसल्याजी उठ दौड़ीं।
पर चक्कर आ
जाने से मूर्च्छित
होकर पृथ्वी पर
गिर पड़ीं। यह
देखते ही भरतजी
बड़े व्याकुल हो
गए और शरीर
की सुध भुलाकर
चरणों में गिर
पड़े॥1॥
*
मातु तात कहँ
देहि देखाई। कहँ
सिय रामु लखनु
दोउ भाई॥
कैकइ कत
जनमी जग माझा।
जौं जनमि त
भइ काहे न
बाँझा॥2॥
भावार्थ:-(फिर बोले-)
माता! पिताजी कहाँ
हैं? उन्हें दिखा दें।
सीताजी तथा मेरे
दोनों भाई श्री
राम-लक्ष्मण कहाँ हैं?
(उन्हें दिखा दें।)
कैकेयी जगत में
क्यों जनमी! और
यदि जनमी ही
तो फिर बाँझ
क्यों न हुई?-॥2॥
*
कुल कलंकु जेहिं
जनमेउ मोही। अपजस
भाजन प्रियजन द्रोही॥
को
तिभुवन मोहि सरिस
अभागी। गति असि
तोरि मातुजेहि लागी॥3॥
भावार्थ:-जिसने कुल
के कलंक, अपयश के
भाँडे और प्रियजनों
के द्रोही मुझ
जैसे पुत्र को
उत्पन्न किया। तीनों
लोकों में मेरे
समान अभागा कौन है? जिसके कारण
हे माता! तेरी
यह दशा हुई!॥3॥
*
पितु सुरपुर बन
रघुबर केतू। मैं
केवल सब अनरथ
हेतू॥
धिग मोहि
भयउँ बेनु बन
आगी। दुसह दाह
दुख दूषन भागी॥4॥
भावार्थ:-पिताजी स्वर्ग
में हैं और
श्री रामजी वन
में हैं। केतु
के समान केवल
मैं ही इन
सब अनर्थों का
कारण हूँ। मुझे
धिक्कार है! मैं
बाँस के वन
में आग उत्पन्न
हुआ और कठिन
दाह, दुःख और दोषों
का भागी बना॥4॥
दोहा :
*
मातु भरत के
बचन मृदु सुनि
पुनि उठी सँभारि।
लिए उठाइ
लगाइ उर लोचन
मोचति बारि॥164॥
भावार्थ:-भरतजी के
कोमल वचन सुनकर
माता कौसल्याजी फिर
सँभलकर उठीं। उन्होंने
भरत को उठाकर
छाती से लगा
लिया और नेत्रों
से आँसू बहाने
लगीं॥164॥
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