Thursday 25 July 2013

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -३-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, तृतीया, गुरूवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे....वह कभी भगवान से प्रार्थना भी करता है तो यही की ‘हे भगवान् ! मेरे मन में आपको प्राप्त करने की इच्छा है ; परन्तु मेरे शौक के समान सदा बने रहे, मुझे नये-नये विलास-द्रव्यों की प्राप्ति होती रहे और मैं इसी प्रकार विलासिता में डूबा हुआ ही आपको भी पा लूँ |’ कहना नहीं होगा की यह प्रार्थना भी उसकी क्षणभर के लिए ही होती है | ऐसे लोगों को करोडपति से कंगाल होते देखा जाता है और अर्थ-कष्ट के साथ ही आदत से प्रतिकूल स्थिति में रहने को बाध्य होने का एक महान कष्ट उसे विशेषरूप से भोगना पडता है |

जो मनुष्य भगवत्प्राप्ति तो चाहता है परन्तु वैराग्य नहीं चाहता और सादा जीवन बिताने में संकोच का अनुभव करता है, वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता |

अत: विलासिता के भाव को मन में आते ही उसे तुरन्त निकल देना चाहिये | यह भाव तरह-तरह की युक्तियाँ पेश करके पहले-पहले ‘कर्तव्य’ का बाना धारणकर आश्रय प्राप्तकर लेता है, फिर बढकर मनुष्य का सर्वनाश कर  डालता है ; अतएव: इससे विशेष सावधान रहना चाहिये | विलासी पुरुषों का सन्ग करना या उनके आस-पास रहना भी विलासिता में फसाने वाला है | इसलिए विलासिता को परम शत्रु समझ इसका सर्वथा नाश करके सभी बातों में सादगी का आचरण करना चाहिये | विलासिता में अनेक हानियाँ है  ; विशेषत: निम्नलिखित दस हानियाँ तो होती ही है-इस बात को याद रखना चाहिये |      

धन का नाश, आरोग्य का नाश, आयु का नाश, सादगी के सुख का नाश, देश के स्वार्थ का नाश, धर्म का नाश, सत्य का नाश, वैराग्य का नाश, भक्ति का नाश और ज्ञान का नाश |  शेष अगले ब्लॉग में ...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    
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Ram