|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद कृष्ण, तृतीया, शुक्रवार,
वि० स० २०७०
गत ब्लॉग से आगे.....ऐसा कौन सा कष्ट है जो अपने इस परम ध्येय की प्राप्ति के लिए
मनुष्य को नहीं सहना चाहिये | जो थोड़े में ही घबरा उठते है, उनके लिए इस पथ का
पथिक बनना असम्भव है | यहाँ तो तन-मन और लोक-परलोक की बाजी लगा देनी पड़ती है | सब
कुछ न्योछावर कर देना पड़ता है उस प्रेमी के चारू चरणों पर !
महाराज श्री कृष्णानन्द जी कहा करते थे-
एक धनी जमींदार का नौजवान लड़का किसी महात्मा की पास जाया
करता था, साधू-सन्ग के प्रभाव से उसके मन में कुछ वैराग्य पैदा हो गया, उसकी
महात्मा में बड़ी श्रद्धा थी, वह प्रेम के साथ महात्मा की सेवा करता था | कुछ दिन
बीतने पर महात्मा ने कृपा करके उसे शिष्य बना लिया, अब वह बड़ी श्रद्धा के साथ
गुरु-महाराज की सेवा-शुश्रुषा करने लगा | कुछ दिनों तक तो उसने बड़े चाव से सारे
काम किये, परन्तु आगे चल कर मन चन्चल हो उठा, संस्कारवश पूर्वस्मृति जाग उठी और कई
तरह की चाहों के चक्कर में पड़ने से उसका चित डावाँडोल हो गया | उसे महत्मा के सन्ग
से बहुत लाभ हुआ था, परन्तु इस समय कामना की जागृति होने का कारण लाभ को भूल गया
और उसके मन में विषाद छा गया | एक दिन दोपहर की कड़ी धूप में गंगा-जल का घड़ा सिर पर
रख कर ला रहा था, रस्ते में उसने सोचा की मैंने कितना साधू-सन्ग किया, कितनी
गुरु-सेवा की, कितने कष्ट सहे पर अभी तक कोई फल तो हुआ नहीं | कही यह साधू ढोंगी
तो नहीं है ? इतने दिन व्यर्थ खोये !*
यह विचार कर उसने घड़ा जमींन पर रख दिया और भागने का विचार
किया | गुरु महाराज बड़े ही महात्मा पुरुष थे और परम योगी थे | उन्होंने शिष्य के
मन की बात जानकर उसे चेतना के लिए योगबल से एक विचित्र कार्य किया | शेष अगले
ब्लॉग में....
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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