|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद कृष्ण, षष्ठी, सोमवार, वि० स० २०७०
गत ब्लॉग से आगे.....भाई ! उन्नति के-यथार्थ उन्नति के उच्चे सिंघासन पर चढ़ने वाले
को प्रथम बाधा-विघ्नजनित भयानक निराशा के थपेड़े अटल, अचलरूप से सहने पडते है,
शून्यता के घोर जलशून्य मरुस्थल को स्थिर धीर भाव से लाँघकर आगे बढ़ना पडता है | इस
अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण होनेपर फिर कोई भय नहीं है | अतएव मेरे भाई ! तुम निराश
न होओ, जितना दुःख या कष्ट आये, जितनी ही अधिक निराशा, शून्यता, अभाव और अधंकार की
काली-काली घटाएँ जीवनाकाश में चरों और फ़ैल जायँ, उतना ही तुम भगवान की और अग्रसर
हो सकोगे | यातना की अग्निशिखा जितनी ही अधिक धधकेगी, तुम उतने ही शान्ति-धाम के
समीप पहुचोगे |’
घड़े के सदुपदेश से शिष्य की आँखे खुल गयी, उसने अपनी
पूर्वस्थिति के साथ वर्तमान-स्तिथि की तुलना की तो उसे साधना और गुरुसेवा का
प्रयत्क्ष महान फल धीखायी दिया | वह घड़े को उठाकर गुरु की कुतिया को चल दिया और
वहाँ पहुचकर गुरु के चरणों में लोट गया |
इस द्रष्टान्त से यह समझना चाहिये की हमे यदि सत, चित,
आनन्द, नित्य निरंजन परमात्मा को प्राप्त करना है तो किसी भी विपत्ति और कष्ट से
घबराना नहीं चाहिये | संसारी विपतियाँ और कष्ट तो इस मार्ग में पद-पद पर आयेंगे |
वास्तव में अपने सारे भोगों का सर्वथा नाश ही कर देना पड़ेगा | शेष अगले ब्लॉग
में....
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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