|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण कृष्ण, चतुर्दशी, सोमवार,
वि० स० २०७०
गत ब्लॉग से आगे...सच्चिदानंदघन विज्ञानानन्दघन परमात्मा
शिव ही भिन्न-भिन्न सर्ग-महासर्गों में भिन्न-भिन्न नाम-रूपों से अपनी परत्परता को
प्रगट करते है | जहाँ जटाजूटधारी श्रीशिवरूप सबके आदि उत्पन्नकर्ता और सर्वपूज्य
महेश्वर उपास्य है तथा अन्य नाम-रूपधारी उपासक है, वहाँ वे शिव ही परात्पर महाशिव
है तथा अन्यान्य देव उनसे अभिन्न होने पर भी उन्ही के स्वरुप में प्रगट, नाना
रूपों और नामों से प्रसिद्ध होते हुए सत्व-रज-तम गुणों को लेकर आवश्यकतानुसार
कार्य करते है | उस महासर्ग में भिन्न-भिन्न ब्रह्मांडों में ब्रह्मा, विष्णु,
रूद्र आदि देवता भिन्न-भिन्न होने पर भी सब उन एक ही परात्पर महाशिव के उपासक है |
इसी प्रकार किसी सर्ग या महासर्ग में महाविष्णु परात्पर होते है और अन्य देवता
उनसे प्रगट होते है;
किसी में ब्रह्मारूप, किसी में महाशक्तिरूप, किसी में श्री
कृष्ण रूप और किसी में श्री रामरूप परात्पर ब्रह्म होते है तथा अन्यान्य स्वरुप
उन्ही से प्रगट होकर उनकी उपासना की और
उनके अधीन सृष्टी, पालन और विनाश की विविध लीलाये करते है | इस तरह एक ही प्रभु
भिन्न-भिन्न रूपों में प्रगट होकर उपास्य-उपासक, स्वामी-सेवक, राजा-प्रजा,
शासक-शासित रूप से लीला करते है | हाँ, एक बात ध्यान में रखनी चाहिये की सृष्टी,
पालन और संहार करने वाले, परात्पर से प्रगट त्रिदेव उनसे अभिन्न और पूर्ण
शक्तियुक्त होते हुए भी तीनों भिन्न-भिन्न प्रकार की क्रिया करते है तथा तीनों की
शक्तियाँ भी अपने-अपने कार्य के अनुसार सीमित ही देखि जाती है | शेष अगले ब्लॉग
में...
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण
!!! नारायण !!! नारायण !!!
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