|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन कृष्ण,
चतुर्थी श्राद्ध, सोमवार, वि० स० २०७०
मायावाद
गत ब्लॉग से आगे....और चूँकि संसाररूप से व्यक्त
होनेवाली यह समस्त क्रीडा महाशक्तिकी अपनी शक्ति-मायाका ही खेल है और माया-शक्ति
उनसे अलग नहीं है, इसलिये यह सारा उन्ही का ऐश्वर्य है | उनको छोड़कर जगत में और
कोई वस्तु ही नहीं है, अतएव जगत को मायिक बतलानेवाला मायावाद भी इस हिसाबसे ठीक ही
है |
आभासवाद
इस प्रकार महाशक्ति ही अपने
मायारूपी दर्पण में अपने विविध श्रंगारों और भावों को देख कर जीवरूप से आप ही
मोहित होती है | इससे आभासवाद भी सत्य है |
माया अनादी और शान्त है
परमात्मरूप महाशक्तिकी उपर्युक्त
मायाशक्ति को अनादी और शान्त कहते है | सो उसका अनादी होना तो ठीक ही है; क्योकि
वह शक्तिमयी महाशक्तिकी अपनी शक्ति होने से उसी की भांति अनादी है, परन्तु
शक्तिमयी महाशक्ति तो नित्य अविनाशिनी है, फिर
उसकी शक्ति माया अंतवाली कैसे होगी? इसका उत्तर यह है की वास्तव में वह
अन्तवाली नहीं है | अनादी, अनंत, नित्य, अविनाशी, परमात्मरूपा महाशक्ति की भान्ति
उसकी शक्ति का कभी विनाश नहीं हो सकता, परन्तु जिस समय वह कार्यविस्ताररूप समस्त
संसार सहित महाशक्ति के सनातन अव्यक्त परमात्मरूप में लीन रहती है, तब तक के लिए
वह अद्रश्य या शान्त हो जाती है और इसी से उसे शान्त कहते है | इस दृष्टिसे उसको
शांत कहना सत्य है |... शेष अगले ब्लॉग में....
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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