Wednesday, 11 September 2013

नारी-निन्दा की सार्थकता -७-


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल, षष्ठी, बुधवार, वि० स० २०७०
 
 
गत ब्लॉग से आगे..... श्रीमध्भागवत में कहा है:-
‘महापुरुषों की सेवा मुक्तिका और स्त्री-संगियों का सन्ग नरक का द्वार है |’ (५|५|२)
 
‘स्त्रियों के संग से स्त्री-संगी-कामी पुरुषों के संग से पुरुषों को जैसे क्लेश और बन्धन में पड़ना होता है, वैसा क्लेश और बन्धन किसी भी दुसरे सन्ग से नहीं होता |’ (११|१४|३०)
 
ब्रह्मवैवर्तपुराण में कहा गया है:-
देवऋषि नारदजी पितामह ब्रह्माजी से कहते है:-
‘जिस नारी-शरीर में इतने दोषसमूह है, पितामह ! उसपर कैसा भरोसा | इस मूत्र-पुरीष एवं मैल के कोठार में पुरुष की कैसी क्रीडा और कौन सुख ? स्त्री के साथ सम्भोग में तेज का नाश होता है, दिन में बात करने से यश का नाश होता है, अधिक प्रीती करने से धन का क्षय होता है और अधिक आसक्ति करने से शरीर का क्षय होता है | ब्रह्मंन ! स्त्रियों का सन्ग करने से पौरष का नाश, कलह करने से मान का नाश और विश्वास करने से सर्वनाश होता है | अत स्त्रियों में कौन सुख है ?’ (२३|३३-३५)
महाभारत में आया हैं:-
‘यम, वायु, मृत्यु, पाताल, वडवानल, छुरे की धार, विष, साँप और अग्नि के साथ नारी की तुलना दी जा सकती है |’ (अनुशा० ३८|२९)
 
महात्मा कबीर ने कहा है :-
नारी की झाई परत अन्धा होत भुजंग |
कबीर तिन की कौन गति नित नारी के संग ||
कामिनी सुन्दर सर्पिणी, जो छेड़े तेहि खाय |
जे गुरु चरनन राचिया, तिनके निकट न जाय ||
पर नारी पैनी छुरी, मत कोई लावों अंग |
 रावन के दस सिर गए पर नारी के संग ||
नारी निरखि न देखिये, निरखि न कीजे दौर |
देखे ही ते विष चढ़े, मन आवे कुछ और ||
नारी नाही जम अहै, तू मन राचै जाय |
मंजारी ज्यों बोली के काढी कलेजा खाय ||
नैनों काजर पाइ के गाढे बाँधे केश |
हाथों मेहँदी लाइ के बाघिन खाया देस |      शेष अगले ब्लॉग में ....            
श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
  नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!   
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Ram