|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल, दशमी, शनिवार, वि० स० २०७०
जल्दी दौड़ों | इस माया के धधकते हुए दवानल से फ़ौरन बहार निकलों | देखों, अग्नि
की प्रलयकारी लाल-लाल लपटे लपक-लपककर जगत को धडाधड
ग्रस रही है | प्रचण्ड धुएं से सभी दिशाएँ छा गयी हैं | वह गया, दूसरा भी चला,
अरे, तीसरे को भी लपटों ने ले लिया | परन्तु हाय ! मूर्ख की तरह
‘किंमकर्तव्यंविमूढ़’ होकर पड़े हो | अरे, अबकी तुम्हारी बारी आती है | यदि बचना
चाहते हो तो तुरन्त सबका मोह छोड़ कर बाहर निकल पडो | देखो ! वह देखों ! उस छलकते हुए अमृतसमुद्र के
किनारे विशाल जहाज ठहराए उसका कृपालु कप्तान बार-बार सीटी बजा-बजाकर सबको बुला रहा
है | जिसने उसकी पुकार सुनकर उसकी और ध्यान दिया वह विश्वव्यापी अग्नि से बचकर
दुःख-सागर से तुरन्त तर गया | इसी तरह तुम भी तर जाओगे ! अरे, निर्भय हो
जाओगे-अमर हो जाओगे ! जागों, जाओं ! शीघ्रता करों, अन्यथा जलते हो, बार-बार जलोगे
! चेतो ! शीघ्र चेतो !!
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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