|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद कृष्ण, द्वादशी, सोमवार,
वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे.......इसके साथ ही चार बाते और हिन्दू-संस्कृति में छोटे-बड़े सबके
स्वभावगत-सी हो गयी थी
(१)
मनुष्य जीवन
का चरम और परम उदेश्य मोक्ष या भगवत्प्राप्ति है | इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए
मानव-जीवन में साधना करना है |
(२)
पुनर्जन्म
अवश्य होगा और उसमे हमे अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल निश्चितरूप से भोगना पड़ेगा |
(३)
शास्त्र सत्य
है और उनके कथनानुसार सुख-दुःख हमारे कर्मों का फल
है |
(४)
कर्तव्य-पालन
करना ही हमारा धर्म है, केवल अधिकार पाना धर्म नहीं |
इन चार
बातों के कारण स्वभाव से ही भोगों के त्याग का महत्व था, उसी में जीवन की महत्ता
मानी जाती थी | चोरी-जारी आदि पापों का फल विविध योनियों में एवं नरकादी में अवश्य
भोगना पड़ेगा, यह विश्वास था |
दुसरे की किसी वस्तु पर मन चलाना पाप है और उसे छल-बल-कौशल
से ले लेना तो महान अपराध है-यह मान्यता थी | सुख-दुःख हमारे कर्म के अनिवार्य फल
है | बुरे कर्म करने पर उसका अच्छा फल तो नहीं हो सकता; फिर बुरा कर्म क्यों
करे-यह दृढ भावना थी | और हमे शास्त्रानुसार अपना कर्तव्य पालन करते जाना है,
कर्मका फल तो भगवान के हाथ में है-यह दृढ आस्था थी | इससे लोग स्वभाव से ही
पापाचारण से बचना चाहते थे | शेष अगले ब्लॉग में ....
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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