|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद कृष्ण, त्रयोदशी, मंगलवार,
वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे.......आज इश्वारका कोई भय नहीं | लोग व्याख्यान-मंचों पर सहस्त्रों
नर-नारियों के सामने छाती फुलाकर और गला फाड़कर कहते है की ‘ईश्वर तो कभी का मर गया
| मनुष्य की कल्पना में ही ईश्वर था, आज का ज्ञानी और बुद्धिमान मनुष्य इस कल्पना
से छुटकारा पाकर स्वतन्त्र हो गया है |’ और जनता ऐसे भाषणों का स्वागत करती है |
धर्म को अवनति का कारण बताया जाता है | शास्त्रों में तथा कर्मों के फल और
पुनर्जन्म में विश्वास उठता जा रहा है, सभी अधिकार चाहते है | कर्तव्य पर किसी का
ध्यान नहीं है |
शक्तिमता
, अधिकार और धन का लोभ इतना बढ़ गया है की उसने मनुष्य को असुर नहीं पिशाच बना दिया
है | इसी से आज का मानव एक-दुसरेपर खून चूसने का दोष लगाता है और स्वयं मानो
छल-बल-कौसल से दिन-रात खून चूसने का ही विशद व्यापार कर रहा है | उसने केवल इसी
सिद्धांत को मान लिया है की किसी भी उपाय से हो, धनकी-भोग पदार्थों की प्राप्ति
होनी चाहिये; बस यही कामोपभोग ही सब कुछ है | कामोपभोगपरमा ऐतावदिति निश्चिता: || (गीता १६|११)
यह कहा जा सकता है की धन से
सुख मिलता है; क्योकि उससे प्राय: सभी आवश्यकताओं की पूर्ती होती है | यह आंशिक
सत्य भी है; परन्तु यह सुख वस्तुत: धन का नहीं है, हमारी आत्म-भावना का है | धन
में तो सुख है ही नहीं | सुख है आत्मा की शान्ति में | जो अशान्त है-दिन रात
उतरोतर बढती हुई कामना की आग से जलता है, उसको सुख कहाँ-‘अशान्तस्य कुत: सुखम् |’ यह नियम है की जैसे आग में ईधन तथा घी डालते रहने से
आग बुझती नहीं-प्रत्युत बढती है, वैसे ही भोग-कामना की पूर्ती से कामना घटती नहीं,
बल्कि बढती है | सौवाला हजारों-लाखों की चाह करता है तो लाखवाला करोड़ों-अरबों की
चाह करता है |
एक नियम यह भी है की एक अभाव की पूर्ति अनेकों नये अभावों
की सृष्टी करने वाली है | और जबतक आभाव का अनुभव है, तब तक प्रतिकूलता है और
प्रतिकूलता रहते चित सर्वथा अशान्त रहेगा और अशान्त चित में सुख हो ही नहीं सकता |
लोग भूल से मानते है की पैसे वाले सुखी है; पर यह बात वस्तुत: नहीं है | उनके हृदय
में जैसी आग धधकती है, वैसी गरीबों शायद नहीं धधकती ! इसका अनुभव भुक्तभोगी ही कर
सकते है | शेष अगले ब्लॉग में ....
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण
!!! नारायण !!! नारायण !!!
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