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श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद कृष्ण, चतुर्दशी, बुधवार,
वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे.......उस दिन एक सज्जन ने बहुत ठीक कहाँ की पहले यद्यपि कुछ लोग ऐसे
भी थे, जो भगवान या धर्म का भय नहीं मानते थे और पाप करते थे, तथापि उनमे यह साहस
नहीं था की वे अपने को निर्दोष ही नहीं, जनता और समाजका सेवक बताये और उलटे पाप न
करनेवालों को डरायें-धमकाये और उन्हें पापी सिद्ध करे |
आज तो
हमारी यह दशा हो गयी है की हम स्वयं धर्म-सेवा और देश-सेवातक के नाम पर अनवरत पाप
करते है और अपने पापी गिरोह के बल पर निष्पाप लोगों को डराते-धमकाते है और उन्हें
पापी सिद्ध करना चाहते है | जनसेवक बतलाकर डाकू का काम करना, भाई बनकर किसी का
सतीत्वापहरण करना, धार्मिक बनकर लोगों को ठगना, गुरु बनकर धन-धर्म को लूटना, रक्षक
नियुक्त होकर भक्षक बन जाना और पहरेदार बनकर चोरी करना आज बुद्धिमानी और गौरव का
कार्य बन गया है | सभी क्षेत्रों में लोग अपने-अपने चरित्रों पर ध्यान देकर देखे
तो उन्हें उपर्युक्त कथन में जरा भी अतिस्योक्ति नहीं मालूम होगी | यह हमारे नैतिक
पतन का एक बाद दुखद स्वरुप है |
चारों
और दलबंदी है | हम मानों अपने आप को ही छलते हुए कहते है की ‘राष्ट्रीयता बढ़ रही
है; पर वस्तुत: प्रान्तीयता, वर्गवाद और व्यक्तित्व ही बढ़ा जा रहा है | दूसरों को
फासिस्ट बताना और स्वयं वैसा ही काम करना स्वभाव सा हो गया है, इसका प्रतिकार कैसे
हों ?’
हमारी समझ से इसका एक उपाय है और वह उपाय है
अध्यात्मप्रधान प्राचीन हिन्दू-संस्कृति की पुन: प्रतिष्ठा | जब तक मनुष्य-जीवन का
लक्ष्य भगवान् नहीं होंगे, जब तक पुनर्जन्म और कर्म-फल में दृढ विश्वास नहीं होगा,
जबतक शास्त्रों के अनुसार पवित्र जीवन बनाना हमारे जीवन की अनिवार्य साधना नहीं
होगी और ऐसा बनकर जबतक किसी भी लोभ, भय या स्वार्थ से धर्मच्युत न होने की दृढ
प्रतिज्ञा नहीं होगी, तब तक किसी भी आन्दोलन से, प्रचार से और कानून से
भ्रष्टाचार, असदाचार और दुषकर्म नहीं रुकेंगे | और जब तक यह पाप का प्रवाह नहीं
रुकेगा, इसका उद्गमस्थल नहीं सूखेगा, तब तक दुःख का प्रवाह भी नहीं रुक सकेगा | यह
ध्रुव सत्य है |
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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