Thursday, 5 September 2013

नारी-निन्दा की सार्थकता -१-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, अमावस्या, गुरूवार, वि० स० २०७०

 

हिन्दुशास्त्रों में-श्रुति-स्मृति-पुराण-इतिहास आदि से लेकर वर्तमान समयतक के संत-महात्माओं की वाणी में भी-जहाँ विविध सद्गुणों की प्रतिमा, ब्रह्मवादिनी, विदुषी, माता, पत्नी, सती, पतिव्रता, गृहणी आदि के रूप में नारी की प्रचुर प्रसंशा की गयी है, उनकी महिमा के अमित गुण गाये गए है, वहाँ उन्हीं ग्रन्थों में नारी की निन्दा भी की गयी है और नारी से बचने का स्पष्ट आदेश भी दिया गया है, यदपि शास्त्रों में नारी-निन्दा की अपेक्षा नारी-स्तुति के प्रसंग कही अधिक है | संतों की वाणी में भी ‘कान्च्चन’ के साथ गिनी जाने वाली विषयरूपा ‘कामिनी’ की जितनी निन्दा की गयी है, उससे कही अधिक पतिव्रता की प्रसंशा के पुल बाधे गए है | तथापि शास्त्र के इस नारी-निन्दा के प्रसंग को लेकर आजतक ऐसा कहा जा रहा है की ‘शास्त्रों की रचना पुरुषों द्वारा हुई है, अतएव उन्होंने जान-बूझकर नारी के प्रति अन्याय किया है |’ पर यदि ध्यान से देखा जाए तो पता लगेगा की शास्त्राकारों ने निष्पक्ष बुद्धि से जहाँ प्रशंसा की आवस्यकता समझी, वहाँ बड़ी प्रसशा की है और जहाँ निन्दाकी, वहाँ निन्दा की है |  साथ ही नारी-निन्दा किस हेतु से गयी है, इसपर शुद्ध भाव के साथ सूक्ष्म विचार करने पर तथा दीर्घदृष्टी से उसका परिणाम देखने पर यह स्पष्ट दीखाई देता है की शास्त्रों ने जो नारी-निन्दा की है, उसमे जरा भी अतिशयोक्ति या दूषित भाव नहीं है, बल्कि वह सर्वथा सार्थक, सत्य और परमआवश्यक भी है | शेष अगले ब्लॉग में ....             

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    
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Ram