Saturday, 7 September 2013

नारी-निन्दा की सार्थकता -३-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद शुक्ल, द्वितीया, शनिवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे...हिन्दू-विवाह-बन्धन इसीलिये संयमका सहायक और सवर्धक है, क्योकि वह ‘लौकिक अभ्युदय और नि:श्रेयस’ की सिद्धिके लिए संपन्न होनेवाला एक पवित्र धार्मिक संस्कार है | रूप-गुणके आकर्षण से प्रभावित और प्रमत्त होकर विषय-वासना की चरितार्थताके लिये किया जानेवाला सौदा नहीं, जो रूप-गुण का अभाव दीखलायी देते ही तोड़ दिया जा सकता है | हिन्दू-विवाह का उद्देश्य क्रमश: विषयाशक्ति से मुक्त होकर भगवान की और बढ़ना ही है | पत्नी के लिए पति और पति के लिये पत्नी परस्पर अच्चेद्द धर्मसूत्र में आबद्ध होकर-एक-दुसरे के सुख-दुःख में अभिन्न रहकर एक-दुसरे की धार्मिक-अध्यात्मिक प्रगति में सहायक है, अत: दोनों परमार्थपथ के पथिक है | इनमे विषय-विलास नहीं होता | वे संन्तानोंपादनरुपी धर्म के लिए ही धर्मसंगत  काम* का सेवन करते है | अत: स्वाभाविक ही वे विलास-सामग्रीके रूप में एक-दुसरे का चिन्तन नहीं करते | पर-पुरुष तथा पर-नारी का चिन्तन नहीं करते | पर-पुरुष तथा पर-नारी का चिंतन सर्वथा निषिद्ध है और इस ‘पर-निषेध’ का विशदीकरण करने के लिए ही नारी-निन्दा है | शेष अगले ब्लॉग में ....            

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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*‘धर्मसन्गत काम’ भगवान् का स्वरुप है | गीता में भगवान ने कहा है-‘अर्जुन ! प्राणियों में धर्म से अविरुद्ध काम मैं हूँ’-‘धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि  भरतैषभ|’   

  नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    
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Ram