|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल, तृतीया, रविवार, वि० स० २०७०
गत ब्लॉग से आगे...प्रश्न हो सकता की ‘फिर
इस रूप में ‘नारी-निन्दा’ ही क्यों ? ‘पुरुष-निन्दा’ क्यों नहीं ?’ इसका उत्तर यह
है की नारी धर्मानुसार एकमात्र अपने स्वामी में परमात्मबुद्धि रखती है और जीवन के
समस्त कार्य स्वामी के प्रीत्यर्थ ही करती है | उसके लिए पर-पुरुषका कोई प्रश्न ही
नहीं, जिसकी निन्दा करके उसके मन को उधर से हटाना आवश्यक हो, क्योकि उसके मन तो
स्वामी के अतिरिक्त दुसरे पुरुष का अस्तित्व ही नहीं है |-‘सपनेहु आन पुरुष जग
नाही |’ परन्तु पुरुष के लिए यह बात नहीं है | पुरुष अपनी पत्नी में व्यवहारतः
परमात्मभाव नहीं रखता | व्यवहार में पत्नी उसके लिए पूजनीय नहीं है; उसे जगत में
सब प्रकार के यज्ञों को यथाधिकार समपन्न करते हुए ही भगवान को प्राप्त करना है,
बहुतों को पूजना है |(अवश्य ही उसे भी इस बहुपूजन में पतिव्रताके आदर्शको सामने
रखकर एक परमात्मा की पूजा के लिए ही सबकी पूजा करनी चाहिये | अपने मन में एक
स्त्री ही क्या, कीट-पतंगमात्र को भी भगवान् का स्वरुप समझकर मन-ही-मन सभी को
पूजना और प्रणाम करना चाहिये*) इसलिए वह व्यवहार
में नारी को नारी-भाव से देखता है, परन्तु भगवत्प्राप्ति तो उसको भी होनी चाहिये |
इसी कारण उसके लिए विविध साधनों का विधान है; परन्तु नारी के लिए पति सेवा के
अतिरिक्त अन्य यम, नियम, जप, व्रत, योग, यज्ञ, स्वाध्याय और तीर्थ-सेवानादी साधन
की कोई आवश्यकता नहीं होती | शेष अगले ब्लॉग में ....
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
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*सीय राममय सब जग जानी | करुऊं प्रनाम जोरी जुग पानी | (रामचरितमानस)
‘आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी,
दिशाएँ, वृक्ष-लता, नदी, समुद्र-सभी भगवान के शरीर है | ऐसा समझकर, कोई भी प्राणी
हो, उसको अनन्यभाव से भगवद्भाव से प्रणाम करे |’ (श्रीम्ध्भागवत
११|२|४१)
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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