Monday, 9 September 2013

नारी-निन्दा की सार्थकता -५-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद शुक्ल, चतुर्थी, सोमवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे.....वह परमात्मभाव से किये हुए एकमात्र पतिसेवनरुपी महायज्ञके द्वारा ही अनायास भगवतप्राप्ति लाभ करती है-परम गति को प्राप्त होती है-‘बिनु श्रम नारी परम गति लहई|’ (इतना ही नहीं, वह अपने पातिव्रत्य के प्रताप से पापी पति का भी परित्राण कर देती है |) विष्णुपुराण में मुनियों की शंकाका समाधान करते हुए भगवान वेदव्यासजी ने स्त्रियों को ‘साधू’ और ‘धन्य’ बतलाया है तथा फिर इस उक्ति का रहस्योदघाटन करते हुए कहा है:-

पुरुषों को अपने धर्मकुल (वर्नाश्रमानुमोदित तथा सत्य एवं न्यायपूर्वक) प्राप्त किये हुए धन से ही सर्वदा सुपात्र को दान और विधिपूर्वक यज्ञ करना चाहिये | द्विजश्रेष्ठगण ! ऐसे द्रव्य के उपार्जन में तथा रक्षण में बड़ा क्लेश होता है और कहीं वह धन अनुचित काम में लगा दिया गया तो उससे मनुष्यों को जो कष्ट भोगना पडता है, वह विदित ही है | इस प्रकार द्विजसतमों ! पुरुषगण इन तथा ऐसे ही अन्य कष्टसाध्य उपायोंके द्वारा प्रजापत्य आदि शुभ लोकोंको क्रमश: प्राप्त करते है | परन्तु स्त्रियाँ तो कर्म-मन-वचन द्वारा पति की सेवा करने से उनकी हितकारिणी बनकर पतिके समान शुभ लोकों को अनायास ही प्राप्त कर लेती है, जो की पुरुषों को अत्यन्त परिश्रम से मिलते है | इसलिए मैंने तीसरी बार यह कहाँ था की स्त्रियाँ साधू है |’

परन्तु यह ऊपर कहा ही गया है की पुरुषके विविध परमार्थ-साधनों में प्रधान विघ्न है विषय-वासना और उसमे प्रधान है-नारी | नारी के प्रति आसक्त चितवाला पुरुष परमार्थ-साधन में कभी अग्रसर नहीं हो सकता | शेष अगले ब्लॉग में ....            

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
  नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!   
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Ram