|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन कृष्ण,
त्रयोदशी श्राद्ध, बुधवार, वि० स० २०७०
बलिदान करो
गत ब्लॉग से आगे... बलिदान करना है तो बलि चढाओं-काम की, क्रोध की,
लोभ की, हिंसा की, असत्य की, और इन्द्रियविषयाशक्ति की; माँ तुम्हारी इन चीजों को
नष्ट कर दे, ऐसी माँ से प्रार्थना करो | माँ की चरणरज रुपी तीक्ष्णधार-तलवार से
दुर्गुणोंरुपी असुरों की बलि चढ़ा दो | अथवा प्रेम की कटारी से ममत्व और अभिमानरुपी
राक्षओ की बली दे दो | तुम कहोगे ‘फिर माँ के हाथ में नरमुंड क्यों है ? माँ भैसें
को क्यों मार रही है ? माँ राक्षसोका नाश क्यों कर रही है ? क्या वे माँ के बच्चे
नहीं है ? उन अपने बच्चों की बलि माँ क्यों स्वीकार करती है !’ तुम इसका रहस्य
नहीं समझते | उनकी बलि कोई दूसरा नहीं, वे स्वयं आकर बलि चढ़ जाते है | अवश्य ही वे
भी माँ के बच्चे है, परन्तु वे ऐसे दुष्ट है की माँ के दुसरे असंख्य निरपराध बच्चों को दुःख देकर, उन्हें
पीड़ा पंहुचा कर, उनका स्वत्व छीनकर, उनका गले काट कर स्वयं रजा बने रहना चाहते है |
स्वयं माँ लक्ष्मी को अपनी भोग्या
बनाकर मात्गामी होना चाहते है, माँ उमा से विवाह करना चाहते है, ऐसे दुष्टों को भी
माँ मारना नहीं चाहती, शिव को दूत बनाकर उनको समझाने के लिए भेजती है; पर जब वे
किसी प्रकार नहीं मानते, तब दयापरवश हो उनका उद्धार करने के लिए उनको बलि के लिए
आह्वान करती है और वे आकर जलती हुई आग में पतंग की भाँती माँ के चरणों में चढ़ जाते
है |
माँ दुसरे सीधे बालकों को आशवशन
देने और ऐसे दुष्टों को शाशन में रखने के लिए ही मुंडमाला धारण करती है | मारकर भी
उनका उद्धार करती है | इन असुरों की इस बलि के साथ तुम्हारी आज की यह स्वार्थपूर्ण
बकरे और पक्षिओं की निर्दयता और कायरतापूर्ण बलि से कोई तुलना नहीं हो सकती | हाँ,
यह तुम्हाराआसुरीपन, राक्षसिपन अवश्य है और इसका फल तुम्हे भोगना पड़ेगा |
अतएव राक्षस न बनो, माँ की प्यारी,
दुलारी संतान बनकर उनकी सुखद गोद में चढ़ने का प्रयत्न करो |... शेष अगले ब्लॉग
में....
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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