|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन शुक्ल, द्वितीया,
रविवार,
वि० स० २०७०
मूर्ख और पापाचारी
गत ब्लॉग से आगे...... माँ की कृपा से मिलनेवाले इस
आत्यन्तिकसे भी परेके श्रेष्ठतम सुख को छोड़कर जो केवल सांसारिक रूप, धन और यश के
फेर में पडा रहता है और उन्हें पानेके लिए ही माँ की आराधना करता है वह तो बड़ा ही
मूर्ख है | और वह तो अधम ही है, जो इन सुखों के लिए माँ की पूजा के नाम पर पापाचार
करता है और दुसरे प्राणियों को पीड़ा पंहुचाकर लाभ उठाना चाहता है |
रूप का मोह छोड़ दो
सौन्दर्यकी- रूप की धधकती आग में पड़कर खाक
हो जाने वाले पतंगे नर-नारियों ! सोचों तुम्हारी कल्पना के रूप में कहाँ सौन्दर्य
है ? हाड, मॉस, मेद, मज्जा, विष्ठा, मूत्र, केश, नख आदि कौन इस वस्तु बहुत सुन्दर
है ? क्या गठीला शरीर सुन्दर है ? अरे चार दिन खून के पचास-पचास दस्त हो जायँ तो
वह हड्डियों का ढांचा रह जायेगा | काले केश सुन्दर है ? बुढ़ापा आने दो, चांदी
की-सी शकल उनकी हो जायेगी | ऊपर की चिकनाई में सुन्दरता है तो अन्दर देखों ! पेट
के थैले में और नसों में मल-मूत्र और रक्त भरा है, कीड़े किल-बिला रहे है | कोढ़ी के
शरीर के घावों को देखों, वहीं तुम्हारे भीतर का असली नमूना है | देखते ही घिन्न
होती है, नाक सिकुड़ जाती है, आँखे फिर जाती है | मरने के बाद एक ही दिनों में शरीर
से असहनीय दुर्गन्ध निकलने लगती है | तुम क्यों इस लौकिक मिथ्या रूप की झूठी
कल्पना पर पागल हो रहे हों ? रूप के मोह को छोड़ दो और उस अपरूप रूप-माधुरी का सेवन
करों जो सारे रूपों का अनन्त, सनातन और नित्य-समुद्र है |..... शेष अगले ब्लॉग
में.
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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