Monday, 14 October 2013

आते हो तुम बार-बार प्रभु ! मेरे मन-मन्दिरके द्वार। पदरत्नाकर (६२)


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन शुक्ल, एकादशी, सोमवार, वि० स० २०७०

 पदरत्नाकर  ६२ - (राग जैत कल्याण-ताल मूल)
आते हो तुम बार-बार प्रभु ! मेरे मन-मन्दिरके द्वार।
कहते-खोलो द्वार, मुझे तुम ले लो अंदर करके प्यार
मैं चुप रह जाता, न बोलता, नहीं खोलता हृदय-द्वार।
पुनः खटखटाकर दरवाजा करते बाहर मधुर पुकार॥
खोल जरा साकहकर यों-मैं, अभी काममें हूँ, सरकार।
फिर आना’-झटपट मैं घरके कर लेता हूँ बंद किंवार॥
फिर आते, फिर मैं लौटाता, चलता यही सदा व्यवहार।
पर करुणामय ! तुम न ऊबते, तिरस्कार सहते हर बार॥
दयासिन्धु ! मेरी यह दुर्मति हर लो, करो बड़ा उपकार।
नीच-‌अधम मैं अमृत छोड़, पीता हालाहल बारंबार॥
अपने सहज दयालु विरदवश, करो नाथ ! मेरा उद्धार।
प्रबल मोहधारामें बहते नर-पशुको लो तुरंत उबार॥

 

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, पदरत्नाकर पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

 
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Ram