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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन शुक्ल, द्वादशी, मंगलवार, वि० स० २०७०
पाप और उसका फल
मनुष्य जब रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श – इन्द्रियों के इन पाँच विषयों में से किसी एक में भी आसक्त हो जाता
है, तब उसे राग-देष के पंजे मे फँस जाना पडता है । फिर वह जिसमे राग होता है उसको
पाना और जिसमे देष होता है उसका नाश करना चाहता है । यो करते-करते वह बड़े-बड़े
भयानक काम कर बैठता है और निरंतर इन्द्रियों के भोगो में ही लगा रहता है । इसमें
उसके ह्रदय में लोभ-मोह, राग-देष छा जाते
है । इसके प्रभाव से उसकी धर्म-बुधि, जो समय-समय पर उसे चेतावनी देकर पाप से बचाया
करती थी, नष्ट हो जाती है । तब वह छल-कपट और अन्याय से धन कमाने में लगता है । जब
दूसरो को धोखा देकर, अन्याय और अधर्म से कुछ कमा लेता है, तब फिर इसी रीती से धन
कमाने में उसे रस आने लगता है । उसके सुहृद और बुद्धिमान लोग उसके इस काम को बुरा
बतलाते और उसे रोकते है, तब वह भांति-भांति की बहाने बाजियाँ करने लगता है । इस
प्रकार उसका मन सदा पाप में ही लगा रहता है, उसके शरीर और वाणी से भी पाप होते है ।
वह पापी जीवन होकर फिर पापीयों के साथ ही मित्रता करता है और इसके फलस्वरूप न तो
इस लोक में सुख पाता है और न परलोक में ही उसे सुख-शांति की प्राप्ति होती है ।
(महाभारत, शांतिपर्व)... शेष अगले ब्लॉग में.
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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