Friday 18 October 2013

शुभ-संग्रह -४-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन शुक्ल, शरतपूर्णिमा, शुक्रवार, वि० स० २०७०

   संतोष
                   

               संतोष ही परम कल्याण है । संतोष ही परम सुख है । संतोषी को ही परम शांति प्राप्त होती है । संतोष के धनी कभी अशान्त नहीं होते । संसार का बड़े से बड़ा साम्राज्य-सुख भी उनके लिये तुच्छ  तिनके के समान होता है । विषम-से-विषम परिस्थिती में भी संतोषी पुरुष क्षुब्ध नहीं होता । सांसारिक भोग-सामग्री उसे  विष के समान जन पढ़ती है । संतोषामृत की मिठास के सामने स्वर्गीय अमृत का उमडता हुआ समुद्र भी फीका पड जाता है ।जिसे अप्राप्त की इच्छा नहीं है, जो कुछ प्राप्त हो उसी में जो समभाव से संतुस्ट है, जगत के सुख-दुःख उसका स्पर्श नहीं कर सकते ।
               जब तक अन्तकरण संतोष की सुधा-धारा से परिपूर्ण  नहीं होता तभी तक संसार की सभी विपतियाँ है । संतोषी चित निरंतर प्रफुल्लित रहता है , इसलिये उसी में ज्ञान का उदय होता है । संतोषी पुरुष के मुख पर एक अलोकिक ज्योति ज्योति जगमगाती रहती है, इससे उसको देखकर दुखी पुरुष के मुख पर भी प्रसन्नता आ जाती है । संतोषी पुरुष की सेवा में स्वर्गीय-सम्पतिँया, विभूतियाँ, देवता, पिटर और ऋषि-मुनि अपने को धन्य मानते है । भक्ति से, ज्ञान से, वैराग्य से अथवा किसी भी प्रकार से संतोष का सम्पादन अवस्य करना चाहिये ।   (योगवासिष्ठ) ).....शेष अगले ब्लॉग में.

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

  नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!   
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Ram