Saturday, 26 October 2013

वर्णाश्रम धर्म -७-


।। श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण, सप्तमी, शनिवार, वि० स० २०७०
 
वानप्रस्थ के धर्म
                               गत ब्लॉग से आगे...समयनुसार प्राप्त हुए वन्य कन्द-मूल आदि से ही देवताओं और पितरों के लिए चरु और पुरोडाश निकाले । वानप्रस्थ होकर वेद-विहित पशुओं द्वारा मेरा यजन न करे । हाँ, वेद-वेताओं के अदेशानुशार अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास और चतुर्मास्यादी को पूर्ववत करता रहे । इस प्रकार घोर तपस्या के कारण (मॉस सूख जानेसे) कृश हुआ वह मुनि मुझ तपोमय की आराधना करके ऋषि-लोकादीमें जाकर फिर वहाँ से कालान्तरमें मुझको प्राप्त कर लेता है । जो कोई इस अति कष्ट-साध्य मोक्ष-फलदायक तपको क्षुद्र फलों (स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक आदि) की कामना से करते है, उससे बढकर मूर्ख और कौन होगा ।
                       
जब यह नियमपालन में असमर्थ हो जाय और बुढ़ापे से शरीर कापने लगे, तब अपने शरीर में अग्नियों को आरोपित करके, मुझमे चित लगाकर अर्थात मेरा स्मरण करता हुआ यह (अपने शरीर से प्रगट हुई ) अग्नि में शरीर को भस्म कर दे । यदि पुण्य-कर्म-विपाक से यदि किसीको अति दुखमय होने के कारण नरक-तुल्य इन लोकों से पूर्ण वैराग्य हो जाय तो आह्वानीयादी अग्नियों को त्याग करके संन्यास ग्रहण कर ले ।
 
           ऐसे विरक्त वानप्रस्थ को चाहिये की वेद-विधि के अनुसार (अष्टकाश्राद्ध और प्रजापत्य-यज्ञसे) यजन करके अपना सर्वस्व ऋत्व्विज को दे दे और अग्नियों को अपने प्राण में लय करके निरपेक्ष होकर स्वछंद विचरे । इस विचार से की ‘यह हमारे लोकको लाँघ कर परम-धाम को जायेगा’  स्त्री आदि के रूपसे देवगण ब्राह्मण के संन्यास लेते समय विघ्न किया करते है (अत: उस समय सावधान रहना चाहिये) |.... शेष अगले ब्लॉग में
 
श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    
 
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Ram