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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण, नवमी, सोमवार, वि० स० २०७०
सन्यासी के धर्म
गत
ब्लॉग से आगे…जो ज्ञाननिष्ठ विरक्त हो अथवा मेरा
अहेतुक (निष्काम) भक्त हो, वह आश्रमादी को उनके चिन्होंसहित छोड़कर वेद-शास्त्रों
के विधि-निषेध के बंधन से मुक्त होकर स्वछंद विचरे । वह अति बुद्धिमान होकर भी
बालकों के समान क्रीडा करे, अति निपुण होकर भी जड़वत रहे, विद्वान होकर भी उन्मत
(पागल) के समान बात-चीत करे और सब प्रकार शास्त्र-विधि को जानकर भी पशु-वृति से
रहे । उसे चाहिये की वेद-विहित कर्मकाण्डादि में प्रवृत न हो और उसके
विरुद्ध होकर पाखण्ड अथवा
स्वेछाचार में भी न लग जाये तथा व्यर्थ के वाद-विवाद में पड़कर कोई पक्ष न ले बैठे । वह धीर पुरुष अन्य लोगों से
उदिग्न न हो और न औरों को ही अपने में उदिग्न न होने दे; निन्दा आदि को सहन करके
कभी चित में बुरा न माने और इस शरीर के लिए पशुओं के समान किसी से वैर न करे ।
एक ही परमात्मा समस्त प्राणियों
के अंत:करण में स्थित है; जैसे एक ही चन्द्रमा के भिन्न-भिन्न जलपात्रों में अनेक
प्रतिबिंब पडते है, उसी प्रकार सभी प्राणियों में एक ही आत्मा है । कभी समय
पर भिक्षा न मिले तो दुःख न माने और मिलजाय तो प्रसत्र न हो; क्योकि दोनों ही
अवस्थाएँ दैवाधीन है । प्राण-रक्षा आवश्यक है, इसके लिए आहारमात्र के लिए चेष्टा
भी करे; क्योकि प्राण रहेंगे तो तत्व-चिन्तन होगा और उसके द्वारा आत्मस्वरूप को
जान लेने से मोक्ष की प्राप्ति होगी |
विरक्त मुनि को चाहिये की दैववशात जैसा आहार मिल
जाये-बढ़िया या मामूली, उसी को खा ले; इस प्रकार वस्त्र और बिछोना भी जैसा मिले,
उसी से काम चला ले । ज्ञाननिष्ठ, परमहंस शौच, आचमन, स्नान तथा अन्य नियमों
को भी शास्त्र-विधि की प्रेरणा से न करे, बल्कि मुझ ईश्वर के समान केवल लीलापूर्वक
करता रहे । उसके लिए यह विकल्परूप#
प्रपंच नहीं रहता, वह तो मेरे
साक्षात्कार से नष्ट हो चुका; प्रारब्धवश जबतक देह है, तब तक उसकी प्रतीति होती है
। उसके पतन होने पर तो वह मुझमे ही मिल जाता हैं ।
#भगवान पतंजली ने योगदर्शन में विकल्प का यह लक्षण किया है-जिसमे केवल शब्द-ज्ञान ही
हो, शब्द की अर्थरूप वस्तु का सर्वथा अभाव हो, वह विकल्प है । यह संसार भी-जैसा श्रुति भी कहती
है शब्दजाल रूप ही है, वस्तुत: कुछ नहीं है; इसलिए इसे भी विकल्प कहा है ।....
शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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