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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक शुक्ल, अष्टमी, रविवार, वि० स० २०७०
मान-अपमानमें सम रहें -२-
गत
ब्लॉग से आगे ... याद रखो -यह द्वंद्व ही जगत है – माया है और इसके अतीत होना ही ब्रह्म है । द्वंद्व परिवर्तन
शील है, विनाशी है और सम ब्रह्म नित्य अविनाशी है । यही तुम्हारा
स्वरुप है ।
स्वरुप होनेके कारण सहज ही अनुभव गम्य है, तथापि प्रकृतिस्थ अवस्थामें सत्य की
अनुभूति छिपी रह जाती है । अतएव अभी इस प्रकार द्वंद्व मोह से
मुक्त रहनेकी साधना करो; न मान-बडाई में हर्षित होओ, न अपमान निंदा में दुखित । इसी प्रकार हमेशा
सम रहो ।
याद रखो -व्यवहारमें
शरीरके विभिन्न अंगों के कार्योंकी भिन्नता रहनेपर आत्मरूपसे जैसे उनमें कोई भेद
नहीं है; वैसे ही-व्यावहारिक परिस्थिति के भेदसे भेद प्रतीत
हो,पर अन्तस्में किसीभी द्वंद्व से अनुकूलता-प्रतिकूलता
का बोध नहीं होना चाहिए ।
याद रखो -देहमें और नाम
में अहंबुद्धि होनेसे ही-जो सर्वथा मिथ्या तथा
अयुक्तियुक्त है-ममता-आसक्ति का प्रसार होता है और
अनुकूलता-प्रतिकूलता की अनुभूति होती है । अतएव अपनेको सदा-सर्वदा आत्मामें
स्थित आत्मरूप देखने की चेष्ठा करो और मिथ्या नाम रूपको सर्वथा कल्पित मानकर
अपनेको सदा उनसे पृथक रखो ।
याद रखो
-जितने भी भेद हैं-सब नाम और रूप को लेकर हैं । नाम-रूप व्यवहार
के लिए हैं ।
इनसे सर्वथा भेद रहित आत्माका सम स्वरुप नहीं बदलता । तुम सम आत्मा में
जो तुम्हारा स्वरुप है स्थित होकर व्यावहारिक जगत में यथायोग्य व्यवहार करो । तुम्हारे
व्यवहारमें विषमता रहेगी, पर तुम आत्म-स्वरूपमें नित्य निर्द्वन्द्व-सर्वदा सर्वथा सम रहोगे । व्यावहारिक लहरियाँ तुम्हारे
प्रशांत स्वरूपमें जरा भी क्षोभ उत्पन्न न कर सकेंगी, वरं वे तुम आत्म-स्वरुप
प्रशांत महासागरकी शोभा होंगी ।.......शेष अगले ब्लॉग में.
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं,
कल्याण कुञ्ज भाग – ७, पुस्तक कोड ३६४, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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