Sunday, 10 November 2013

मान-अपमानमें सम रहें -२-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक शुक्ल, अष्टमी, रविवार, वि० स० २०७०

 
मान-अपमानमें सम रहें -२-

गत ब्लॉग से आगे ... याद रखो -यह द्वंद्व ही जगत है – माया है और इसके अतीत होना ही ब्रह्म है द्वंद्व परिवर्तन शील है, विनाशी है और सम ब्रह्म नित्य अविनाशी है यही तुम्हारा स्वरुप है स्वरुप होनेके कारण सहज ही अनुभव गम्य है, तथापि प्रकृतिस्थ अवस्थामें सत्य की अनुभूति छिपी रह जाती है अतएव अभी इस प्रकार द्वंद्व मोह से मुक्त रहनेकी साधना करो; न मान-बडाई में हर्षित होओ, न अपमान निंदा में दुखित इसी प्रकार हमेशा सम रहो

 
याद रखो -व्यवहारमें शरीरके विभिन्न अंगों के कार्योंकी भिन्नता रहनेपर आत्मरूपसे जैसे उनमें कोई भेद नहीं है; वैसे ही-व्यावहारिक परिस्थिति के भेदसे भेद प्रतीत हो,पर अन्तस्में किसीभी द्वंद्व से अनुकूलता-प्रतिकूलता का बोध नहीं होना चाहिए

 
याद रखो -देहमें और नाम में अहंबुद्धि होनेसे ही-जो सर्वथा मिथ्या तथा अयुक्तियुक्त है-ममता-आसक्ति का प्रसार होता है और अनुकूलता-प्रतिकूलता की अनुभूति होती है अतएव अपनेको सदा-सर्वदा आत्मामें स्थित आत्मरूप देखने की चेष्ठा करो और मिथ्या नाम रूपको सर्वथा कल्पित मानकर अपनेको सदा उनसे पृथक रखो
 

याद रखो -जितने भी भेद हैं-सब नाम और रूप को लेकर हैं नाम-रूप व्यवहार के लिए हैं इनसे सर्वथा भेद रहित आत्माका सम स्वरुप नहीं बदलता तुम सम आत्मा में जो तुम्हारा स्वरुप है स्थित होकर व्यावहारिक जगत में यथायोग्य व्यवहार करो तुम्हारे व्यवहारमें विषमता रहेगी, पर तुम आत्म-स्वरूपमें नित्य निर्द्वन्द्व-सर्वदा सर्वथा सम रहोगे व्यावहारिक लहरियाँ तुम्हारे प्रशांत स्वरूपमें जरा भी क्षोभ उत्पन्न न कर सकेंगी, वरं वे तुम आत्म-स्वरुप प्रशांत महासागरकी शोभा होंगी ।.......शेष अगले ब्लॉग में.         

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, कल्याण कुञ्ज भाग – ७,  पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!     

 
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Ram