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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष कृष्ण, प्रतिपदा, सोमवार,
वि० स० २०७०
सच्चे सुख की प्राप्ति का उपाय -२-
गत
ब्लॉग से आगे ... याद रखो -अपनी सहज सुखकी स्थिति से, प्रत्येक परिस्तिथिको मंगलमय मानने-जानने की
वृत्तिसे और यथा-लाभ संतुष्ट रहनेके स्वभावसे विचलित होकर जब मनुष्य विविध भोगोंकी
वासना-तृष्णाके जालमें फँस जाता है, जब उसके ह्रदय में उत्तरोत्तर बढ़ने वाली कामना
की आग जल उठती है, तब किसी भी स्थितिमें वह संतुष्ट नहीं होता – अतएव वह कभी भी
दुःखसे मुक्त नहीं हो सकता । उसका संताप – दुःख उत्तरोत्तर बढ़ता
ही चला जाता है ।
इस प्रकार मनुष्य स्वयं ही अनावश्यक भोग-कामनाओंको ह्रदयमें जगाकर दुखोंको बुला
लेता है और जीवन की अंतिम सांस तक – मृत्युके बिंदु तक असंख्य दुखोंसे घिरा रहता
है ।
उसका मन कभी चिंता-रहित, प्रशांत और संताप-शून्य होकर सुखके दर्शन नहीं कर पाता ।
याद रखो -यहाँ जो भोगोंके अभाव की आगमें जलता हुआ मरता है, मरनेके बाद भी
लोकांतरमें उसे उसी आगमें जलना पड़ता है । यहाँ की
काम-वासना उसके अंदर वहाँ भी ज्यों-की-त्यों वर्तमान रहकर उसे संतप्त करती रहती है
।
याद रखो -इसके विपरीत जो
अनावश्यक भोग-कामनाओं से मुक्त है, जिसका मन हर हालतमें संतुष्ट है, जो कभी भी अभाव
का अनुभव नही करता और सदा सहज ही परम-पावन भगवानके मंगलमय
विधान के अनुसार प्राप्त प्रत्येक परिस्थिति में भगवानकी कृपाके दर्शन करता रहता
है, वह मृत्युके समय भोगों से सर्वथा रहित और भगवानकी मंगलमयी स्मृतिमें संलग्न
रहता है ।
उसका मन भोगोंके अभाव का अनुभव न करके भगवानके परम सौहार्दका अनुभव करके आह्लादित
रहता है ।
वह अत्यंत शान्ति-सुखके साथ देह-त्याग करके जाता है और भगवानकी स्मृतिमें ही
मृत्यु होनेके कारण मृत्युके अनंतर वह निश्चितरूपसे निस्संदेह भगवानको ही प्राप्त
होता है ।..... शेष
अगले ब्लॉग में.
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं,
कल्याण कुञ्ज भाग – ७, पुस्तक कोड ३६४, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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