Tuesday, 19 November 2013

मनुष्य-जीवनका एकमात्र उद्देश्य – भगवतप्राप्ति -१-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

मार्गशीर्ष कृष्ण, द्वितीया, मंगलवार, वि० स० २०७०

 
मनुष्य-जीवनका एकमात्र उद्देश्य – भगवतप्राप्ति -१-

गत ब्लॉग से आगे ... ८. याद रखो - उपनिषदमें शरीरको रथ, इन्द्रियोंको घोड़े, मनको लगाम, बुद्धिको सारथि, जीवात्माको रथी और विषयोंको रथ के चलनेके मार्ग की उपमा देकर यह कहा गया है की जैसे सारथि विवेकयुक्त, कहाँ जाना है यह जाननेवाला तथा स्मरण रखनेवाला, घोड़ोंकी लगाम थामकर उन्हें चलानेमें चतुर एवं दुर्धर्ष तथा बलवान घोडोंको नियंत्रणमें रखने की शक्तिवाला होता है तो वह घोड़ोंके अधीन न होकर लगाम के द्वारा घोड़ों को अपने वशमें रखकर मालिक को उसके इष्ट-स्थानपर शीघ्र सुख से पहूंचा देता है; वैसे ही जिस पुरुष की बुद्धि विवेकवती, कर्तव्य-अकर्तव्यके ज्ञानसे संपन्न, मनको तथा इन्द्रियोंको वशमें रखनेमें समर्थ, सावधान, बलवान, निश्चयात्मिका तथा इश्वाराभिमुखी होती है, वह पुरुष बुद्धिके द्वारा मनको संयममें रखकर इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले प्रत्येक आचारको शास्त्रानुकूल भगवत्प्रीत्यर्थ निष्काम-भावसे संपन्न करके अपने-आपको भगवानके धाममें ले जाता है
 

याद रखो -जिसकी बुद्धि अनिश्चयात्मिका, अविवेकवती, मनको अपने अधीन रखनेमें असमर्थ, इन्द्रियों को मनके सहारे इच्छानुसार सत्पथपर – भगवानके मार्ग पर चलानेमें अक्षम तथा बहुशाखावाली होती है, उसका असंयत मन बहिर्मुखी बलवान इन्द्रियोंके वशमें हो जाता है इन्द्रियाँ सदा-सर्वदा दुराचार, दुष्कर्ममें लगी रहती है फलत: बुद्धि और भी कुविचार और अविचारसे युक्त हो जाती है एवं वह पुरुष मानव-जीवनके परम तथा चरम लक्ष्य भगवत-प्राप्तिसे वंचित तो रहता ही है, बुरे कर्मोंके फल-स्वरुप सदा संसार-चक्रमें भटकता रहता है-बार बार आसुरी योनियोंमें जाता है, नरकों की असह्य यातना भोगने को मजबूर भी होता है इस प्रकार उसका घोर पतन हो जाता है – वैसे ही जैसे मूर्ख तथा अविवेकी सारथि का रथ रथी तथा घोड़ों सहित गहरे गड्ढेमें गिर पड़ता है .. शेष अगले ब्लॉग में .         

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, कल्याण कुञ्ज भाग – ७,  पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!     
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Ram