Tuesday, 5 November 2013

संतोषी परम सुखी -१-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक शुक्ल, द्वितीया,मंगलवार, वि० स० २०७०

 
संतोषी परम सुखी --
 

याद रखो-मनुष्य की एक बड़ी कमजोरी है-उसका चिरस्थायी ‘असंतोष’ । इसीसे वह सदा दुखी रहता है । तृष्णाकी कोई सीमा नहीं है; जितना मिले, उतनी ही तृष्णा बढती है । भोगोंकी प्राप्ति से तृष्णा का अंत नहीं होता-वरं ज्यों-ज्यों भोग प्राप्त होते हैं, त्यों- त्यों तृष्णा का दायरा बढ़ता ही जाता है । भोग भोगने की शक्ति चाहे नष्ट हो जाए, परन्तु तृष्णा नहीं नष्ट होती । तृष्णा बड़े-से-बड़े धनवान, ऐश्वर्यवान को भी सदा दरिद्र बनाए रखती है, उसमें कभी जीर्णता नहीं आती; उसका तारुण्य सदा बना ही रहता है ।

 

याद रखो -जिसका मन प्रत्येक परिस्थिति में संतुष्ट रहता है, वही परमसुखी है । वस्तुतः संतोष ही वह परम धन है, जिसे पाकर मनुष्य सदा धनि बना रहता है, कोई भी अवस्था उसे दीन-दरिद्र नहीं बना सकती । संतोष से प्राप्त होनेवाला जो महान पद है, वह बड़े-से-बड़े सम्राटके पद से भी ऊँचा और महान है ।

 

याद रखो -संतोष संपन्न पुरुष ही वास्तविक साधू है । घर छोड़ने पर भी जिसको संतोष नहीं है, वह कभी साधू नहीं हो सकता; वह तो दिन-रात असंतोष की आगमें जलता रहता है । संतोष ही वह परम शीतल पदार्थ है, जो जलते जीवनको सुशीतल बना देता है । संतोष ही जीवन के अन्धकार से अभिशप्त अंगोंको पर्मोज्वल्ल बनाता है ।

 

याद रखो -जिसको संतोष नहीं है, उसकी वृत्ति कभी एकाग्र नहीं हो सकती; वह सदा ही क्षिप्त और चंचल बनी रहती है । असंतोष मनुष्य को चोर, ठग, डाकू और पर-हितहरण करनेवाला असुर बना देता है । असंतोष से ही द्वेष, क्रोध, वैर और हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है । शील, शान्ति, प्रेम और सेवा आदि सद्गुण असंतोषी मनुष्य के जीवनमें कभी नहीं आते । यदि इनमें से कोई कुछ समय के लिए आते हैं तो असंतोष की आगमें जलकर नष्ट हो जाते हैं ।.....शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!     

 
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Ram