Wednesday, 6 November 2013

संतोषी परम सुखी -२-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक शुक्ल, तृतीया, बुधवार, वि० स० २०७०

 

संतोषी परम सुखी --
 

गत ब्लॉग से आगे ... याद रखो -संतोष होता है जगत की अनित्यता, दुःखमयता के निश्चयसे अथवा श्री भगवानके मंगल-विधानपर परम विश्वास होनेपर ही । जगत की कोई भी स्थिति या तो मायामय है-कुछ है नहीं या विविध रसमयी भगवानकी लीला है । माया है तो असंतोष का कोई कारण ही नहीं है; लीला है तो प्रत्येक लीलामें लीलामयके मधुर-मंगल दर्शन का परमानंद है । उसीमें चित्त रम जाता है ।

 

याद रखो -जो लोग असंतोष की आगमें जलते रहते हैं-वे ही दूसरों के ह्रदयमें असंतोष की आग सुलगाकर उन्हें संतप्त कर देते हैं । वे कहते हैं की ‘असंतोष के बिना उन्नति नहीं होती । उन्नति कामि को असंतोषी होना चाहिए ।’ पर यह उनकी असंतोष-वृत्तिसे उदित विकृत बुद्धि का विपरीत दर्शनमात्र है । बुद्धि जब तामसिक गुणों के वशमें होकर विकृत हो जाती है, तब मनुष्य को सब विपरीत दिखाई देता है । इसलिए वह सहज ही बुरे को भला मानकर स्वयं उसीको ग्रहण करता है और वही दुसरोंको भी समझा देना चाहता है ।

 

याद रखो -संतुष्ट मनवाले पुरुषके अंदरसे जो सहज ही एक आनंद लहर निकलती रहती है, वह आसपास के लोगों को प्रभावित कर उन्हें भी आनंद प्रदान करती है । संतोषी पुरुष ही शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, निंदा-स्तुति आदि विपरीत परिस्थितियों में समभाव रखकर भगवानका प्रिय भक्त हो सकता है और वही अपने शांत जीवन के द्वारा भगवानकी यथार्थ पूजा कर सकता है ।

 

याद रखो -अकर्मण्यता, आलस्य, प्रमाद आदिका नाम संतोष नहीं है । संतोषी पुरुष ही वस्तुतः व्यवस्थित चित्त से सत्कर्म कर सकता है; क्योंकि उसका चित्त शांत और उसकी बुद्धि शुद्ध, विवेकवती एवं यथार्थ निश्चय करनेवाली होती है ।....शेष अगले ब्लॉग में.         

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!     
If You Enjoyed This Post Please Take 5 Seconds To Share It.

0 comments :

Ram