॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ द्वितीयोऽध्याय:
दूसरा अध्याय
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस
गोरखपुर से प्रकाशित गीता टीका "साधक संजीवनी" से ]
सञ्जय
उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं
वाक्यमुवाच मधुसूदन:॥ १॥
संजय बोले—वैसी कायरतासे व्याप्त हुए उन अर्जुनके प्रति, जो कि
विषाद कर रहे हैं और आँसुओंके कारण जिनके नेत्रोंकी देखनेकी शक्ति अवरुद्ध हो रही
है, भगवान् मधुसूदन यह (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा
कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्ति
करमर्जुन ॥ २॥
श्रीभगवान्
बोले—हे अर्जुन! इस विषम अवसरपर तुम्हें यह कायरता कहाँसे प्राप्त हुई, जिसका कि श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, जो स्वर्गको
देनेवाली नहीं है और कीर्ति करनेवाली भी
नहीं है।
क्लैब्यं
मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं
हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥ ३॥
हे
पृथानन्दन अर्जुन! इस नपुंसकताको मत प्राप्त हो; क्योंकि तुम्हारेमें यह उचित नहीं है। हे परन्तप! हृदयकी इस तुच्छ
दुर्बलताका त्याग करके (युद्धके लिये) खड़े हो जाओ।
अर्जुन
उवाच
कथं
भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभि:
प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥ ४॥
अर्जुन
बोले—हे मधुसूदन! मैं रणभूमिमें भीष्म और द्रोणके साथ बाणोंसे कैसे युद्ध करूँ?
क्योंकि हे अरिसूदन! ये दोनों ही पूजाके योग्य हैं।
गुरूनहत्वा
हि महानुभावान्
श्रेयो
भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु
गुरूनिहैव
भुञ्जीय
भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्॥ ५॥
महानुभाव
गुरुजनोंको न मारकर इस लोकमें मैं भिक्षाका अन्न खाना भी श्रेष्ठ समझता हूँ;
क्योंकि गुरुजनोंको मारकर यहाँ रक्तसे सने हुए तथा धनकी कामनाकी
मुख्यतावाले भोगोंको ही तो भोगूँगा!
न
चैतद्विद्म: कतरन्नो गरीयो-
यद्वा जयेम
यदि वा नो जयेयु:।
यानेव
हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिता:
प्रमुखे धार्तराष्ट्रा:॥ ६॥
हम यह भी
नहीं जानते कि हमलोगोंके लिये (युद्ध करना और न करना—इन) दोनोंमेंसे कौन-सा अत्यन्त श्रेष्ठ है अथवा हम उन्हें जीतेंगे या वे
हमें जीतेंगे। जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही
धृतराष्ट्रके सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
पृच्छामि
त्वां धर्मसम्मूढचेता:।
यच्छ्रेय:
स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं
शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥७॥
कायरतारूप
दोषसे तिरस्कृत स्वभाववाला और धर्मके विषयमें मोहित अन्त:करणवाला मैं आपसे पूछता
हूँ कि जो निश्चित कल्याण करनेवाली हो, वह
बात मेरे लिये कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ। आपके शरण हुए मुझे शिक्षा दीजिये।
न हि
प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्
।
अवाप्य
भूमावसपत्नमृद्धं-
राज्यं
सुराणामपि चाधिपत्यम्॥ ८॥
कारण कि
पृथ्वीपर धन-धान्यसमृद्ध और शत्रुरहित राज्य तथा (स्वर्गमें) देवताओंका आधिपत्य
मिल जाय तो भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा जो शोक है,
वह दूर हो जाय—ऐसा मैं नहीं देखता हूँ।
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा
हृषीकेशं गुडाकेश: परन्तप।
न योत्स्य
इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥ ९ ॥
संजय बोले—हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र! ऐसा कहकर निद्राको जीतनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी
भगवान् गोविन्दसे 'मैं युद्ध नहीं करूँगा’ ऐसा साफ-साफ कहकर
चुप हो
गये।
तमुवाच
हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये
विषीदन्तमिदं वच:॥ १०॥
हे
भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र! दोनों सेनाओंके मध्य भागमें विषाद करते हुए उस अर्जुनके
प्रति हँसते हुए-से भगवान् हृषीकेश यह (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं
प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च
नानुशोचन्ति पण्डिता:॥ ११॥
श्रीभगवान्
बोले—तुमने शोक न करनेयोग्यका शोक किया है और विद्वत्ता (पण्डिताई)-की बातें कह
रहे हो; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये
पण्डितलोग शोक नहीं करते।
न त्वेवाहं
जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:।
न चैव न
भविष्याम: सर्वे वयमत: परम्॥ १२॥
किसी
कालमें मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजालोग नहीं थे,
यह बात भी नहीं है; और इसके बाद (भविष्यमें
मैं, तू और राजालोग) हम सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है।
देहिनोऽस्मिन्यथा
देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा
देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥ १३॥
देहधारीके
इस मनुष्यशरीरमें जैसे बालकपन, जवानी और
वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही दूसरे शरीरकी प्राप्ति होती है।
उस विषयमें धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।
मात्रास्पर्शास्तु
कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व
भारत॥ १४॥
हे
कुन्तीनन्दन! इन्द्रियोंके विषय (जड़ पदार्थ) तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण
(प्रतिकूलता)-के द्वारा सुख और दु:ख देनेवाले हैं तथा आने-जानेवाले और अनित्य हैं।
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो।
यं हि न
व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदु:खसुखं
धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥ १५॥
कारण कि हे
पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दु:खमें सम रहनेवाले जिस बुद्धिमान् मनुष्यको ये
मात्रास्पर्श (पदार्थ) विचलित (सुखी-दु:खी) नहीं करते,
वह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।
नासतो
विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
उभयोरपि
दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥
१६॥
असत्का तो
भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्का अभाव विद्यमान नहीं है। तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने
इन दोनोंका ही तत्त्व देखा अर्थात् अनुभव किया है।
अविनाशि तु
तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य
न कश्चित्कर्तुमहर्ति॥ १७॥
अविनाशी तो
उसको जान,
जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश कोई भी
नहीं कर सकता।
अन्तवन्त
इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य
तस्माद्युध्यस्व भारत॥ १८॥
अविनाशी,
जाननेमें न आनेवाले और नित्य रहनेवाले इस शरीरीके ये देह अन्तवाले
कहे गये हैं। इसलिये हे अर्जुन! तुम युद्ध करो।
य एनं
वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न
विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥ १९॥
जो मनुष्य
इस अविनाशी शरीरीको मारनेवाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है,
वे दोनों ही इसको नहीं जानते; क्योंकि यह न
मारता है और न मारा जाता है।
न जायते
म्रियते वा कदाचि-
न्नायं
भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य:
शाश्वतोऽयं पुराणो-
न हन्यते
हन्यमाने शरीरे॥ २०॥
यह शरीरी न
कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह
जन्मरहित,
नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और अनादि है।
शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।
वेदाविनाशिनं
नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुष:
पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥ २१॥
हे
पृथानन्दन! जो मनुष्य इस शरीरीको अविनाशी, नित्य,
जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको
मारे और कैसे किसको मरवाये?
वासांसि
जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति
नरोऽपराणि।
तथा
शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति
नवानि देही॥ २२॥
मनुष्य
जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है,
ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता
है।
नैनं
छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं
क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥ २३॥
शस्त्र इस
शरीरीको काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला
नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा
नहीं सकती।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य
एव च।
नित्य:
सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:॥ २४॥
यह शरीरी
काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा
सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा
सकता। कारण कि यह नित्य रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते
।
तस्मादेवं
विदित्वैनं नानुशोचितुमहर्सि॥ २५॥
यह देही
प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तनका विषय
नहीं है और यह निर्विकार कहा जाता है। अत: इस देहीको ऐसा जानकर शोक नहीं करना
चाहिये।
अथ चैनं
नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं
महाबाहो नैवं शोचितुमहर्सि॥ २६॥
हे
महाबाहो! अगर तुम इस देहीको नित्य पैदा होनेवाला अथवा नित्य मरनेवाला भी मानो,
तो भी तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये।
जातस्य हि
ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे
न त्वं शोचितुमहर्सि॥ २७॥
कारण कि
पैदा हुएकी जरूर मृत्यु होगी और मरे हुएका जरूर जन्म होगा। अत: (इस जन्म-मरणरूप
परिवर्तनके प्रवाहका) निवारण नहीं हो सकता। अत: इस विषयमें तुम्हें शोक नहीं करना
चाहिये।
अव्यक्तादीनि
भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव
तत्र का परिदेवना॥ २८॥
हे भारत!
सभी प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे,
केवल बीचमें ही प्रकट दीखते हैं। अत: इसमें शोक करनेकी बात ही क्या
है?
आश्चर्यवत्पश्यति
कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति
तथैव चान्य:।
आश्चर्यवच्चैनमन्य:
शृणोति
श्रुत्वाप्येनं
वेद न चैव कश्चित्॥ २९॥
कोई इस
शरीरीको आश्चर्यकी तरह देखता (अनुभव करता) है और वैसे ही दूसरा कोई इसका आश्चर्यकी
तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्यकी तरह सुनता है और इसको सुनकर भी कोई
नहीं जानता अर्थात् यह दुॢवज्ञेय है।
देही
नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि
भूतानि न त्वं शोचितुमहर्सि॥ ३०॥
हे
भरतवंशोद्भव अर्जुन! सबके देहमें यह देही नित्य ही अवध्य है। इसलिये सम्पूर्ण
प्राणियोंके लिये अर्थात् किसी भी प्राणीके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
स्वधर्ममपि
चावेक्ष्य न विकम्पितुमहर्सि।
धर्म्याद्धि
युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥ ३१॥
और अपने
क्षात्रधर्मको देखकर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात् कर्तव्य-कर्मसे विचलित नहीं होना
चाहिये;
क्योंकि धर्ममय युद्धसे बढ़कर क्षत्रियके लिये दूसरा कोई कल्याणकारक
कर्म नहीं है।
यदृच्छया
चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिन:
क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥ ३२॥
अपने-आप
प्राप्त हुआ युद्ध खुला हुआ स्वर्गका दरवाजा भी है। हे पृथानन्दन! वे क्षत्रिय बड़े
सुखी (भाग्यशाली) हैं, जिनको ऐसा युद्ध
प्राप्त होता है।
अथ
चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
तत:
स्वधर्मं कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥
३३॥
अब अगर तू
यह धर्ममय युद्ध नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति का त्याग करके पापको प्राप्त
होगा।
अकीर्ति चापि भूतानि
कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य
चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥ ३४॥
और सब
प्राणी भी तेरी सदा रहनेवाली अपकीर्ति का कथन अर्थात् निन्दा करेंगे। वह अपकीर्ति सम्मानित मनुष्यके लिये मृत्युसे भी बढ़कर
दु:खदायी होती है।
भयाद्रणादुपरतं
मंस्यन्ते त्वां महारथा:।
येषां च
त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥ ३५॥
तथा
महारथीलोग तुझे भयके कारण युद्धसे हटा हुआ मानेंगे। जिनकी धारणामें तू बहुमान्य हो
चुका है,
(उनकी दृष्टिमें) तू लघुताको प्राप्त हो जायगा।
अवाच्यवादांश्च
बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता:।
निन्दन्तस्तव
सामर्थ्य ततो दु:खतरं नु किम्॥ ३६॥
तेरे
शत्रुलोग तेरी सामर्थ्यकी निन्दा करते हुए बहुत-से न कहनेयोग्य वचन भी कहेंगे।
उससे बढ़कर और दु:खकी बात क्या होगी?
हतो वा
प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ
कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥ ३७॥
अगर (युद्धमें)
तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्गकी प्राप्ति होगी और अगर (युद्धमें) तू जीत जायगा तो
पृथ्वीका राज्य भोगेगा। अत: हे कुन्तीनन्दन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो
जा।
सुखदु:खे
समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो
युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ ३८॥
जय-पराजय,
लाभ-हानि और सुख-दु:खको समान करके फिर युद्धमें लग जा। इस प्रकार
(युद्ध करनेसे) तू पापको प्राप्त नहीं होगा।
एषा
तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्या
युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥ ३९॥
हे पार्थ!
यह समबुद्धि तेरे लिये (पहले) सांख्य-योगमें कही गयी और अब तू इसको कर्मयोगके
विषयमें सुन; जिस समबुद्धिसे युक्त हुआ तू
कर्म-बन्धनका त्याग कर देगा।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति
प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य
धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥ ४०॥
मनुष्यलोकमें
इस समबुद्धिरूप धर्मके आरम्भका नाश नहीं होता तथा (इसके अनुष्ठानका) उलटा फल भी
नहीं होता और इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान (जन्म-मरणरूप) महान् भयसे रक्षा कर लेता
है।
व्यवसायात्मिका
बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा
ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥ ४१॥
हे
कुरुनन्दन! इस (समबुद्धिकी प्राप्ति)-के विषयमें निश्चयवाली बुद्धि एक ही होती है।
जिनका एक निश्चय नहीं है, ऐसे मनुष्योंकी
बुद्धियाँ अनन्त और बहुत शाखाओंवाली ही होती हैं।
यामिमां
पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:।
वेदवादरता:
पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:॥ ४२॥
कामात्मान:
स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां
भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥ ४३॥
हे
पृथानन्दन! जो कामनाओंमें तन्मय हो रहे हैं, स्वर्गको
ही श्रेष्ठ माननेवाले हैं, वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें
प्रीति रखनेवाले हैं, (भोगोंके सिवाय) और कुछ है ही नहीं—ऐसा कहनेवाले हैं, वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकारकी
जिस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणीको कहा करते हैं, जो कि
जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है तथा भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुत-सी
क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां
तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका
बुद्धि: समाधौ न विधीयते॥ ४४॥
उस पुष्पित
वाणीसे जिसका अन्त:करण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है,
और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन
मनुष्योंकी परमात्मामें एक निश्चयवाली बुद्धि नहीं होती।
त्रैगुण्यविषया
वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो
नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥ ४५॥
वेद तीनों
गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं; हे
अर्जुन! तू तीनों गुणोंसे रहित हो जा, राग-द्वेषादि
द्वन्द्वोंसे रहित हो जा, निरन्तर नित्यवस्तु परमात्मामें
स्थित हो जा, योगक्षेमकी चाहना भी मत रख और परमात्मपरायण हो
जा।
यावानर्थ
उदपाने सर्वत: सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु
वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत:॥ ४६॥
सब तरफसे
परिपूर्ण महान् जलाशयके प्राप्त होनेपर छोटे गड्ढोंमें भरे जलमें मनुष्यका जितना
प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता, (वेदों और शास्त्रोंको) तत्त्वसे जाननेवाले ब्रह्मज्ञानीका सम्पूर्ण वेदोंमें
उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता।
कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन।
मा
कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ ४७॥
कर्तव्य-कर्म
करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं।
अत: तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो।
योगस्थ:
कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्यो:
समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥ ४८॥
हे धनंजय!
तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर;
क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।
दूरेण
ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ
शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव:॥ ४९॥
बुद्धियोग
(समता)-की अपेक्षा सकामकर्म दूरसे (अत्यन्त) ही निकृष्ट हैं। अत: हे धनंजय! तू
बुद्धि (समता)-का आश्रय ले; क्योंकि फलके हेतु
बननेवाले अत्यन्त दीन हैं।
बुद्धियुक्तो
जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय
युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्॥ ५०॥
बुद्धि
(समता)-से युक्त मनुष्य यहाँ (जीवित अवस्थामें ही) पुण्य और पाप—दोनोंका त्याग कर देता है। अत: तू योग (समता)-में लग जा; क्योंकि कर्मोंमें योग ही कुशलता है।
कर्मजं
बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण:।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ता:
पदं गच्छन्त्यनामयम्॥ ५१॥
कारण कि
समतायुक्त बुद्धिमान् साधक कर्मजन्य फलका अर्थात् संसारमात्रका त्याग करके जन्मरूप
बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्त हो
जाते हैं।
यदा ते
मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा
गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ ५२॥
जिस समय
तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको भलीभाँति तर जायगी, उसी
समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा।
श्रुतिविप्रतिपन्ना
ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला
बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥ ५३॥
जिस कालमें
शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मामें अचल
हो जायगी,
उस कालमें तू योगको प्राप्त हो जायगा।
अर्जुन
उवाच
स्थितप्रज्ञस्य
का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधी:
किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥ ५४॥
अर्जुन
बोले—हे केशव! परमात्मामें स्थित स्थिर बुद्धिवाले मनुष्यके क्या लक्षण होते
हैं? वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है अर्थात् व्यवहार करता है?
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति
यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना
तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥ ५५॥
श्रीभगवान्
बोले—हे पृथानन्दन! जिस कालमें साधक मनमें आयी सम्पूर्ण कामनाओंका भलीभाँति
त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थिरबुद्धि कहा जाता है।
दु:खेष्वनुद्विग्नमना:
सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध:
स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ ५६॥
दु:खोंकी
प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके
मनमें स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय
और क्रोधसे सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य
स्थिरबुद्धि कहा जाता है।
य:
सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति
न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ५७॥
सब जगह
आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ-अशुभको प्राप्त करके न तो प्रसन्न होता है और
न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर
है।
यदा संहरते
चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य
प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ५८॥
जिस तरह
कछुआ अपने अंगोंको सब ओरसे समेट लेता है, ऐसे
ही जिस कालमें यह (कर्मयोगी) इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे हटा
लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।
विषया
विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं
रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥ ५९॥
निराहारी
(इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेवाले) मनुष्य-के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं,
पर रस निवृत्त नहीं होता। परन्तु परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे इस
स्थितप्रज्ञ मनुष्यका रस भी निवृत्त हो जाता है अर्थात् उसकी संसारमें रसबुद्धि
नहीं रहती।
यततो ह्यपि
कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:।
इन्द्रियाणि
प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:॥ ६०॥
कारण कि हे
कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहनेसे) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील
इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं।
तानि
सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:।
वशे हि
यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ६१॥
कर्मयोगी
साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके मेरे परायण होकर बैठे;
क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, उसकी
बुद्धि स्थिर है।
ध्यायतो
विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सञ्जायते
काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते॥ ६२॥
क्रोधाद्भवति
सम्मोह:
सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्
बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ ६३॥
विषयोंका
चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना
पैदा होती है। कामनासे (बाधा लगनेपर) क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह
(मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर
बुद्धि (विवेक)-का नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु
विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैॢवधेयात्मा
प्रसादमधिगच्छति॥ ६४॥
प्रसादे
सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो
ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते॥ ६५॥
परन्तु
वशीभूत अन्त:करणवाला (कर्मयोगी साधक) राग-द्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई
इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ (अन्त:करणकी) निर्मलताको प्राप्त हो जाता
है। (अन्त:करणकी) निर्मलता प्राप्त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दु:खोंका नाश हो जाता
है और ऐसे शुद्ध चित्तवाले साधककी बुद्धि नि:सन्देह बहुत जल्दी (परमात्मामें)
स्थिर हो जाती है।
नास्ति
बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत:
शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम्॥ ६६॥
जिसके
मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्यकी
व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती और (व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे) उस अयुक्त
मनुष्यमें निष्कामभाव अथवा कर्तव्यपरायणताका भाव नहीं होता। निष्कामभाव न होनेसे
उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है?
इन्द्रियाणां
हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति
प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥ ६७॥
कारण कि
(अपने-अपने विषयोंमें) विचरती हुई इन्द्रियोंमेंसे (एक ही इन्द्रिय) जिस मनको अपना
अनुगामी बना लेती है, वह (अकेला मन)
जलमें नौकाको वायुकी तरह इसकी बुद्धिको हर लेता है।
तस्माद्यस्य
महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य
प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ६८॥
इसलिये हे
महाबाहो! जिस मनुष्यकी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे सर्वथा वशमें की हुई हैं,
उसकी बुद्धि स्थिर है।
या निशा
सर्वभूतानां तस्यां जागृत संयमी।
यस्यां
जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥ ६९॥
सम्पूर्ण
प्राणियोंकी जो रात (परमात्मासे विमुखता) है, उसमें
संयमी मनुष्य जागता है और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते
हैं), वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-
समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा
यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ ७०॥
जैसे
(सम्पूर्ण नदियोंका) जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है,
पर (समुद्र अपनी
मर्यादामें) अचल स्थित रहता है, ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ
जिस संयमी मनुष्यको (विकार उत्पन्न किये बिना ही) प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंकी
कामनावाला नहीं।
विहाय
कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो
निरहङ्कार: स शान्तिमधिगच्छति॥ ७१॥
जो मनुष्य सम्पूर्ण
कामनाओंका त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और
अहंतारहित होकर आचरण करता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है।
एषा
ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि
ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥ ७२॥
हे
पृथानन्दन! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई मोहित नहीं होता। इस
स्थितिमें यदि अन्तकालमें भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति
हो जाती है।
ॐ तत्सदिति
श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम
द्वितीयोऽध्याय:॥
२॥
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