॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ तृतीयोऽध्याय:
तीसरा अध्याय
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित गीता टीका "साधक संजीवनी" से ]
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ १॥
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥ २॥
अर्जुन बोले—हे जनार्दन! अगर आप कर्मसे बुद्धि (ज्ञान)-को श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर हे केशव! मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? आप
अपने मिले हुए-से वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहित-सी कर रहे हैं। अत: आप निश्चय करके
उस एक बातको कहिये, जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ।
श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥ ३॥
श्रीभगवान् बोले—हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्यलोकमें दो प्रकारसे होनेवाली निष्ठा मेरे
द्वारा पहले कही गयी है। उनमें ज्ञानियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा
कर्मयोगसे होती है।
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥ ४॥
मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताका
अनुभव करता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्त होता है।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥ ५॥
कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म
किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृतिके परवश हुए सब
प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा लेते हैं।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते॥ ६॥
जो कर्मेन्द्रियों (सम्पूर्ण इन्द्रियों)-को हठपूर्वक
रोककर मनसे इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करते हुए बैठता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण
करनेवाला) कहा जाता है।
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते॥ ७॥
परन्तु हे अर्जुन! जो मनुष्य मनसे इन्द्रियोंपर
नियन्त्रण करके आसक्तिरहित होकर (निष्कामभावसे) कर्मेन्द्रियों (समस्त
इन्द्रियों)-के द्वारा कर्मयोगका आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण:॥ ८॥
तू शास्त्रविधिसे नियत किये हुए कर्तव्य-कर्म कर; क्योंकि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा
कर्म न करनेसे तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर॥ ९॥
यज्ञ (कर्तव्य-पालन)-के लिये किये जानेवाले कर्मोंसे
अन्यत्र (अपने लिये किये जानेवाले) कर्मोंमें लगा हुआ यह मनुष्य-समुदाय कर्मोंसे
बँधता है; इसलिये हे कुन्तीनन्दन! तू
आसक्तिरहित होकर उस यज्ञके लिये ही कर्तव्य-कर्म कर।
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥ १०॥
देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥ ११॥
प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें
कर्तव्य-कर्मोंके विधानसहित प्रजा (मनुष्य आदि)-की रचना करके (उनसे, प्रधानतया मनुष्योंसे) कहा कि तुमलोग इस कर्तव्यके द्वारा
सबकी वृद्धि करो और यह (कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ) तुमलोगोंको कर्तव्य-पालनकी आवश्यक
सामग्री प्रदान करनेवाला हो। इस (अपने कर्तव्य-कर्म)-के द्वारा तुमलोग देवताओंको
उन्नत करो और वे देवतालोग (अपने कर्तव्यके द्वारा) तुमलोगोंको उन्नत करें। इस
प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव स:॥ १२॥
यज्ञसे पुष्ट हुए देवता भी तुमलोगोंको (बिना माँगे
ही) कर्तव्यपालनकी आवश्यक सामग्री देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओंकी दी हुई
सामग्रीको दूसरोंकी सेवामें लगाये बिना जो मनुष्य (स्वयं ही उसका) उपभोग करता है, वह चोर ही है।
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥ १३॥
यज्ञशेष (योग)-का अनुभव करनेवाले श्रेष्ठ मनुष्य
सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात्
सब कर्म करते हैं, वे पापीलोग तो पापका ही भक्षण करते
हैं।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥ १४॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥
१५॥
सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं। अन्नकी
उत्पत्ति वर्षासे होती है। वर्षा यज्ञसे होती है। यज्ञ कर्मोंसे सम्पन्न होता है।
कर्मोंको तू वेदसे उत्पन्न
जान और वेदको अक्षर ब्रह्मसे प्रकट हुआ जान। इसलिये
वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य-कर्म)-में नित्य स्थित है।
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य:।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥ १६॥
हे पार्थ! जो मनुष्य इस लोकमें इस प्रकार (परम्परासे)
प्रचलित सृष्टि-चक्रके अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन
बितानेवाला) मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है।
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥ १७॥
परन्तु जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें
ही तृप्त तथा अपने-आपमें ही सन्तुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:॥ १८॥
उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुष)-का इस संसारमें न
तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्म न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है
तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें (किसी भी प्राणीके साथ) इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका
सम्बन्ध नहीं रहता।
तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष:॥ १९॥
इसलिये तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्मका
भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्ति-रहित होकर कर्म करता
हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमहर्सि॥ २०॥
राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म (कर्म-योग)-के
द्वारा ही परम-सिद्धिको प्राप्त हुए थे। इसलिये लोकसंग्रहको देखते हुए भी तू
(निष्काम-भावसे) कर्म करनेके ही योग्य है अर्थात् अवश्य करना चाहिये।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ २१॥
श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ
प्रमाण कर देता है, दूसरे मनुष्य उसीके अनुसार आचरण करते
हैं।
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥ २२॥
हे पार्थ! मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है
और न कोई प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्यकर्ममें ही लगा रहता हूँ।
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥ २३॥
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥ २४॥
क्योंकि हे पार्थ! अगर मैं किसी समय सावधान होकर
कर्तव्य-कर्म न करूँ (तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि) मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं। यदि मैं
कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं वर्णसंकरताको करनेवाला
होऊँ तथा इस समस्त प्रजाको नष्ट करनेवाला बनूँ।
सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ॥
२५॥
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्॥ २६॥
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन
जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित तत्त्वज्ञ महापुरुष भी
लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे। सावधान तत्त्वज्ञ महापुरुष
कर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानी मनुष्योंकी बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न न करे, प्रत्युत स्वयं समस्त कर्मोंको अच्छी तरहसे करता हुआ उनसे भी वैसे ही
करवाये।
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ २७॥
सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा
किये जाते हैं; परन्तु अहंकारसे मोहित अन्त:करणवाला
अज्ञानी मनुष्य मैं कर्ता हूँ—ऐसा मान लेता है।
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥ २८॥
परन्तु हे महाबाहो! गुण-विभाग और कर्म-विभागको
तत्त्वसे जाननेवाला महापुरुष 'सम्पूर्ण
गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं—ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं
होता।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥ २९॥
प्रकृतिजन्य गुणोंसे अत्यन्त मोहित हुए अज्ञानी
मनुष्य गुणों और कर्मोंमें आसक्त रहते हैं। उन पूर्णतया न समझनेवाले मन्दबुद्धि
अज्ञानियोंको पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी मनुष्य विचलित न करे।
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर:॥ ३०॥
तू विवेकवती बुद्धिके द्वारा सम्पूर्ण
कर्तव्य-कर्मोंको मेरे अर्पण करके कामनारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको कर।
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा:।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभि:॥ ३१॥
जो मनुष्य दोष-दृष्टिसे रहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे
इस (पूर्वश्लोकमें वर्णित) मतका सदा अनुसरण करते हैं, वे भी कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं।
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतस:॥ ३२॥
परन्तु जो मनुष्य मेरे इस मतमें दोष-दृष्टि करते हुए
इसका अनुष्ठान नहीं करते, उन सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित और
अविवेकी मनुष्योंको नष्ट हुए ही समझो अर्थात् उनका पतन ही होता है।
सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति॥ ३३॥
सम्पूर्ण प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं। ज्ञानी
महापुरुष भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। (फिर इसमें किसीका) हठ क्या
करेगा?
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥ ३४॥
इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें (प्रत्येक इन्द्रियके
प्रत्येक विषयमें) मनुष्यके राग और द्वेष व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको
लेकर) स्थित हैं। मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें) विघ्न डालनेवाले
शत्रु हैं।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥ ३५॥
अच्छी तरह आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणोंकी
कमीवाला अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका
धर्म भयको देनेवाला है।
अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष:।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:॥ ३६॥
अर्जुन बोले—हे वार्ष्णेय! फिर यह मनुष्य न चाहता हुआ भी जबर्दस्ती लगाये हुएकी तरह
किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है?
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥ ३७॥
श्रीभगवान् बोले—रजोगुणसे उत्पन्न यह
काम अर्थात् कामना (ही पापका कारण है)। यह काम ही
क्रोध (-में परिणत होता) है। यह बहुत खाने-वाला और महापापी है। इस विषयमें तू इसको
ही वैरी जान।
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥ ३८॥
जैसे धुएँसे अग्नि और मैलसे दर्पण ढका जाता है तथा
जैसे जेरसे गर्भ ढका रहता है, ऐसे
ही उस कामनाके द्वारा यह (ज्ञान अर्थात् विवेक) ढका हुआ है।
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥ ३९॥
हे कुन्तीनन्दन! इस अग्निके समान कभी तृप्त न
होनेवाले और विवेकियोंके कामनारूप नित्य वैरीके द्वारा मनुष्यका विवेक ढका हुआ है।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥ ४०॥
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इस कामनाके वास-स्थान कहे गये हैं। यह कामना इन (इन्द्रियाँ,
मन और बुद्धि)-के द्वारा ज्ञानको ढककर देहाभिमानी मनुष्यको मोहित
करती है।
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥ ४१॥
इसलिये हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! तू सबसे
पहले इन्द्रियोंको वशमें करके इस ज्ञान और विज्ञानका नाश करनेवाले महान् पापी
कामको अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल।
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:॥ ४२॥
एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥ ४३॥
इन्द्रियोंको (स्थूलशरीरसे) पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक
तथा सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियोंसे पर मन है, मनसे भी पर
बुद्धि है और जो बुद्धिसे भी पर है,
वह (काम) है। इस तरह बुद्धिसे पर (काम)-को जानकर अपने
द्वारा अपने-आपको वशमें करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु
ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम
तृतीयोऽध्याय:॥ ३॥
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