॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ चतुर्थोऽध्याय:
चौथा अध्याय
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस
गोरखपुर से प्रकाशित गीता टीका "साधक संजीवनी" से ]
श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं
प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह
मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥ १॥
श्रीभगवान् बोले —मैंने
इस अविनाशी योग (कर्मयोग)-को सूर्यसे कहा था। फिर सूर्यने (अपने पुत्र) वैवस्वत
मनुसे कहा और मनुने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकुसे कहा।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो
विदु:।
स कालेनेह महता योगो नष्ट: परन्तप॥
२॥
हे परन्तप! इस तरह परम्परासे
प्राप्त इस कर्म-योगको राजर्षियोंने जाना। परन्तु बहुत समय बीत जानेके कारण वह योग
इस मनुष्यलोकमें लुप्तप्राय हो गया।
स एवायं मया तेऽद्य योग: प्रोक्त:
पुरातन:।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं
ह्येतदुत्तमम्॥ ३॥
तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है,
इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा है; क्योंकि यह बड़ा उत्तम रहस्य है।
अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वत:।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ
प्रोक्तवानिति॥ ४॥
अर्जुन बोले—आपका
जन्म तो अभीका है और सूर्यका जन्म बहुत पुराना है; अत: आपने ही सृष्टिके आरम्भमें (सूर्यसे) यह योग कहा था—यह बात मैं कैसे समझूँ ?
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव
चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ
परन्तप॥ ५॥
श्रीभगवान् बोले—हे
परन्तप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ,
पर तू नहीं जानता।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा
भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय
सम्भवाम्यात्ममायया॥ ६॥
मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते
हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी
योगमायासे प्रकट होता हूँ।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति
भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं
सृजाम्यहम्॥ ७॥
हे भरतवंशी अर्जुन! जब-जब धर्मकी
हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं
अपने-आपको (साकाररूपसे) प्रकट करता हूँ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च
दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे
युगे॥ ८॥
साधुओं (भक्तों)-की रक्षा करनेके
लिये,
पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना
करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति
तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति
मामेति सोऽर्जुन॥ ९॥
हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य
हैं। इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्मको) जो मनुष्य तत्त्वसे जान लेता है अर्थात्
दृढ़तापूर्वक मान लेता है, वह शरीरका त्याग
करके पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत मुझे प्राप्त
होता है।
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता:।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता:॥ १०॥
राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित, मुझमें तल्लीन, मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तपसे पवित्र हुए बहुत-से भक्त मेरे स्वरूपको
प्राप्त हो चुके हैं।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव
भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या:
पार्थ सर्वश:॥ ११॥
हे पृथानन्दन! जो भक्त जिस प्रकार
मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी
प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे
मार्गका अनुसरण करते हैं।
काङ्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त
इह देवता:।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके
सिद्धिर्भवति कर्मजा॥ १२॥
कर्मोंकी सिद्धि (फल) चाहनेवाले
मनुष्य देवताओंकी उपासना किया करते हैं; क्योंकि
इस मनुष्यलोकमें कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं
गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां
विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥ १३॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे
कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स
बध्यते॥ १४॥
मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके
विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है। उस (सृष्टि-रचना आदि)-का कर्ता होनेपर
भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू अकर्ता जान! कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा
नहीं है,
इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान
लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता।
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि
मुमुक्षुभि:।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै:
पूर्वतरं कृतम्॥ १५॥
पूर्वकालके मुमुक्षुओंने भी इस
प्रकार जानकर कर्म किये हैं, इसलिये तू भी
पूर्वजोंके द्वारा सदासे किये जानेवाले कर्मोंको ही (उन्हींकी तरह) कर।
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र
मोहिता:।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि
यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥ १६॥
कर्म क्या है और अकर्म क्या है—इस
प्रकार इस विषयमें विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। अत: वह कर्म-तत्त्व मैं तुझे
भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू
अशुभ (संसार-बन्धन)-से मुक्त हो जायगा।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च
विकर्मण:।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो
गति:॥ १७॥
कर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये और
अकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये तथा विकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये;
क्योंकि कर्मोंकी गति गहन है अर्थात् समझनेमें बड़ी कठिन है।
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म
य:।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त:
कृत्स्नकर्मकृत्॥ १८॥
जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है
और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह
मनुष्योंमें बुद्धिमान् है, वह योगी है और सम्पूर्ण कर्मोंको
करनेवाला (कृतकृत्य) है।
यस्य सर्वे समारम्भा:
कामसङ्कल्पवर्जिता:।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु:
पण्डितं बुधा:॥ १९॥
जिसके सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भ
संकल्प और कामनासे रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे जल गये हैं,
उसको ज्ञानिजन भी पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं।
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो
निराश्रय:।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव
किञ्चित्करोति स:॥ २०॥
जो कर्म और फलकी आसक्तिका त्याग
करके (संसारके) आश्रयसे रहित और सदा तृप्त है, वह
कर्मोंमें अच्छी तरह लगा हुआ भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता।
निराशीर्यतचित्तात्मा
त्यक्तसर्वपरिग्रह:।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति
किल्बिषम्॥ २१॥
जिसका शरीर और अन्त:करण अच्छी तरहसे
वशमें किया हुआ है, जिसने सब प्रकारके संग्रहका
परित्याग कर दिया है, ऐसा इच्छारहित (कर्मयोगी) केवल
शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापको प्राप्त नहीं होता।
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो
विमत्सर:।
सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न
निबध्यते॥ २२॥
(जो कर्मयोगी फलकी इच्छाके बिना)
अपने-आप जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट
रहता है और जो ईर्ष्यासे रहित, द्वन्द्वोंसे रहित तथा सिद्धि
और असिद्धिमें सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता।
गतसङ्गस्य मुक्तस्य
ज्ञानावस्थितचेतस:।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं
प्रविलीयते॥ २३॥
जिसकी आसक्ति सर्वथा मिट गयी है,
जो मुक्त हो गया है, जिसकी बुद्धि स्वरूपके
ज्ञानमें स्थित है, ऐसे केवल यज्ञके लिये कर्म करनेवाले
मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म
हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं
ब्रह्मकर्मसमाधिना॥ २४॥
जिस यज्ञमें अर्पण अर्थात् जिससे
अर्पण किया जाय, वे स्रुक् आदि पात्र भी ब्रह्म
है, हव्य पदार्थ (तिल, जौ, घी आदि) भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें
आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है, (ऐसे यज्ञको करनेवाले)
जिस मनुष्यकी ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि हो गयी है, उसके
द्वारा प्राप्त करनेयोग्य (फल भी) ब्रह्म ही है।
दैवमेवापरे यज्ञं योगिन:
पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं
यज्ञेनैवोपजुह्वति॥ २५॥
अन्य योगीलोग दैव (भगवदर्पणरूप)
यज्ञका ही अनुष्ठान करते हैं और दूसरे योगीलोग ब्रह्मरूप अग्निमें (विचाररूप)
यज्ञके द्वारा ही (जीवात्मारूप) यज्ञका हवन करते हैं।
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये
संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु
जुह्वति॥ २६॥
अन्य योगीलोग श्रोत्रादि समस्त
इन्द्रियोंका संयमरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं और दूसरे योगीलोग शब्दादि
विषयोंका इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं।
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि
चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति
ज्ञानदीपिते॥ २७॥
अन्य योगीलोग सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी
क्रियाओंको और प्राणोंकी क्रियाओंको ज्ञानसे प्रकाशित आत्मसंयम-योग (समाधियोग)-रूप
अग्निमें हवन किया करते हैं।
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा
योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता:॥ २८॥
दूसरे कितने ही तीक्ष्ण व्रत
करनेवाले प्रयत्नशील साधक द्रव्यमय यज्ञ करनेवाले हैं और कितने ही तपोयज्ञ
करनेवाले हैं और दूसरे कितने ही योगयज्ञ करनेवाले हैं तथा कितने ही स्वाध्यायरूप
ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं।
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं
तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा
प्राणायामपरायणा:॥ २९॥
अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु
जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो
यज्ञक्षपितकल्मषा:॥ ३०॥
दूसरे कितने ही प्राणायामके परायण
हुए योगीलोग अपानमें प्राणका (पूरक करके) प्राण और अपानकी गति रोककर (कुम्भक करके),
फिर प्राणमें अपानका हवन (रेचक) करते हैं; तथा
अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणोंका प्राणोंमें हवन किया करते हैं। ये
सभी (साधक) यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश करनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म
सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य:
कुरुसत्तम॥ ३१॥
हे कुरुवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन!
यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते
हैं। यज्ञ न करनेवाले मनुष्यके लिये यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है,
फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा?
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो
मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं
ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥ ३२॥
इस प्रकार और भी बहुत तरहके यज्ञ
वेदकी वाणीमें विस्तारसे कहे गये हैं। उन सब यज्ञोंको तू कर्मजन्य जान। इस प्रकार
जानकर (यज्ञ करनेसे) तू कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा।
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ:
परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने
परिसमाप्यते॥ ३३॥
हे परन्तप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञसे
ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ ज्ञान (तत्त्वज्ञान)-में समाप्त
(लीन) हो जाते हैं।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन
सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं
ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥ ३४॥
उस तत्त्वज्ञानको (तत्त्वदर्शी
ज्ञानी महापुरुषोंके पास जाकर) समझ। उनको साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करनेसे,
उनकी सेवा करनेसे और सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे तत्त्वदर्शी
(अनुभवी) ज्ञानी (शास्त्रज्ञ) महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे।
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि
पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण
द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥ ३५॥
जिस (तत्त्वज्ञान)-का अनुभव करनेके
बाद तू फिर इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा और हे अर्जुन! जिस (तत्त्वज्ञान)-से
तू सम्पूर्ण प्राणियोंको नि:शेष भावसे पहले अपनेमें और उसके बाद मुझ सच्चिदानन्दघन
परमात्मामें देखेगा।
अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य:
पापकृत्तम:।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं
सन्तरिष्यसि॥ ३६॥
अगर तू सब पापियोंसे भी अधिक पापी
है तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा नि:सन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह
तर जायगा।
यथैधांसि
समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि
भस्मसात्कुरुते तथा॥ ३७॥
हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि
ईंधनोंको सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही
ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको सर्वथा भस्म कर देती है।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह
विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि
विन्दति॥ ३८॥
इस मनुष्यलोकमें ज्ञानके समान
पवित्र करनेवाला नि:सन्देह दूसरा कोई साधन नहीं है। जिसका योग भलीभाँति सिद्ध हो
गया है,
(वह कर्मयोगी) उस तत्त्वज्ञानको अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें पा लेता
है।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर:
संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां
शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥ ३९॥
जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है,
ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है और ज्ञानको प्राप्त
होकर वह तत्काल परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा
विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं
संशयात्मन:॥ ४०॥
विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा
मनुष्यका पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्यके लिये न तो यह लोक (हितकारक) है,
न परलोक (हितकारक) है और न सुख ही है।
योगसन्न्यस्तकर्माणं
ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति
धनञ्जय॥ ४१॥
हे धनंजय! योग (समता)-के द्वारा
जिसका सम्पूर्ण कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है और विवेकज्ञानके द्वारा जिसके
सम्पूर्ण संशयोंका नाश हो गया है,
ऐसे स्वरूप-परायण मनुष्यको कर्म
नहीं बाँधते।
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं
ज्ञानासिनात्मन:।
छित्त्वैनं संशयं
योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥ ४२॥
इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! हृदयमें
स्थित इस अज्ञानसे उत्पन्न अपने संशयका ज्ञानरूप तलवारसे छेदन करके योग (समता)-में
स्थित हो जा और (युद्धके लिये) खड़ा हो जा।
ॐ तत्सदिति
श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
ज्ञानकर्मसन्न्यासयोगो नाम
चतुर्थोऽध्याय:॥ ४॥
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