॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ पञ्चमोऽध्याय:
पाँचवा अध्याय
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस
गोरखपुर से प्रकाशित गीता टीका "साधक संजीवनी" से ]
अर्जुन
उवाच
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं
च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि
सुनिश्चितम्॥ १॥
अर्जुन बोले—हे कृष्ण! आप कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी और फिर कर्मयोगकी प्रशंसा
करते हैं। अत: इन दोनों साधनोंमें जो एक निश्चितरूपसे कल्याणकारक हो, उसको मेरे लिये कहिये।
श्रीभगवानुवाच
सन्न्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो
विशिष्यते॥ २॥
श्रीभगवान् बोले—संन्यास (सांख्ययोग) और कर्म-योग दोनों ही कल्याण करनेवाले हैं। परन्तु उन
दोनोंमें भी कर्मसंन्यास (सांख्ययोग)-से कर्मयोग श्रेष्ठ है।
ज्ञेय: स नित्यसन्न्यासी यो न
द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं
बन्धात्प्रमुच्यते॥ ३॥
हे महाबाहो! जो मनुष्य न किसीसे द्वेष
करता है और न किसीकी आकांक्षा करता है, वह
(कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि
द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न
पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते
फलम्॥ ४॥
बेसमझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोगको
अलग-अलग (फलवाले) कहते हैं, न कि पण्डितजन;
क्योंकि इन दोनोंमेंसे एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित मनुष्य
दोनोंके फल (परमात्माको) प्राप्त कर लेता है।
यत्साङ्ख्यै: प्राप्यते स्थानं
तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यं च योगं च य: पश्यति स
पश्यति॥ ५॥
सांख्ययोगियोंके द्वारा जो तत्त्व
प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियोंके
द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। अत: जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोगको
(फलरूपमें) एक देखता है, वही ठीक देखता है।
सन्न्यासस्तु महाबाहो
दु:खमाप्तुमयोगत:।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म
नचिरेणाधिगच्छति॥ ६॥
परन्तु हे महाबाहो! कर्मयोगके बिना
सांख्ययोग सिद्ध होना कठिन है। मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्त हो जाता
है।
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा
जितेन्द्रिय:।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न
लिप्यते॥ ७॥
जिसकी इन्द्रियाँ अपने वशमें हैं,
जिसका अन्त:करण निर्मल है, जिसका शरीर अपने
वशमें है और सम्पूर्ण प्राणियोंकी आत्मा ही जिसकी आत्मा है, ऐसा
कर्मयोगी कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत
तत्त्ववित्।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्न्गच्छ न्स्वपञ्श् नसन् ॥ ८॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि
।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त
इति धारयन्॥ ९॥
तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी
देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, सूँघता हुआ, खाता
हुआ, चलता हुआ, ग्रहण करता हुआ,
बोलता हुआ, (मल-मूत्रका) त्याग करता हुआ,
सोता हुआ, श्वास लेता हुआ तथा आँख खोलता हुआ
और मूँदता हुआ भी 'सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके
विषयोंमें बरत रही हैं’—ऐसा
समझकर 'मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता हूँ’—ऐसा माने।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं
त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते न स पापेन
पद्मपत्रमिवाम्भसा॥ १०॥
जो (भक्तियोगी) सम्पूर्ण कर्मोंको
परमात्मामें अर्पण करके और आसक्तिका त्याग करके कर्म करता है,
वह जलसे कमलके पत्तेकी तरह पापसे लिप्त नहीं होता।
कायेन मनसा बुद्ध्या
केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिन: कर्म कुर्वन्ति सङ्गं
त्यक्त्वात्मशुद्धये॥ ११॥
कर्मयोगी आसक्तिका त्याग करके केवल
(ममतारहित) इन्द्रियाँ, शरीर, मन और बुद्धिके द्वारा अन्त:करणकी शुद्धिके लिये ही कर्म करते हैं।
युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा
शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्त: कामकारेण फले सक्तो
निबध्यते॥ १२॥
कर्मयोगी कर्मफलका त्याग करके
नैष्ठिकी शान्तिको प्राप्त होता है। परन्तु सकाम मनुष्य कामनाके कारण फलमें आसक्त
होकर बँध जाता है।
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते
सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न
कारयन्॥ १३॥
जिसकी इन्द्रियाँ और मन वशमें हैं,
ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारोंवाले (शरीररूपी) पुरमें सम्पूर्ण
कर्मोंका (विवेकपूर्वक) मनसे त्याग करके
नि:सन्देह न करता हुआ और न करवाता हुआ सुखपूर्वक (अपने स्वरूपमें) स्थित रहता है।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति
प्रभु:।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु
प्रवर्तते॥ १४॥
परमेश्वर मनुष्योंके न कर्तापनकी,
न कर्मोंकी और न कर्मफलके साथ संयोगकी रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है।
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं
विभु:।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति
जन्तव:॥ १५॥
सर्वव्यापी परमात्मा न किसीके
पाप-कर्मको और न शुभ-कर्मको ही ग्रहण करता है; किन्तु
अज्ञानसे ज्ञान ढका हुआ है, उसीसे सब जीव मोहित हो रहे हैं।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां
नाशितमात्मन:।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति
तत्परम्॥ १६॥
परन्तु जिन्होंने अपने जिस ज्ञानके
द्वारा उस अज्ञानका नाश कर दिया है, उनका
वह ज्ञान सूर्यकी तरह परमतत्त्व परमात्माको प्रकाशित कर देता है।
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा:
।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं
ज्ञाननिर्धूतकल्मषा:॥ १७॥
जिनका मन तदाकार हो रहा है,
जिनकी बुद्धि तदाकार हो रही है, जिनकी स्थिति
परमात्मतत्त्वमें है, ऐसे परमात्मपरायण साधक ज्ञानके द्वारा
पापरहित होकर अपुनरावृत्ति (परमगति)-को प्राप्त होते हैं।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि
हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदृशन:॥ १८॥
ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त
ब्राह्मणमें और चाण्डालमें तथा गाय, हाथी
एवं कुत्तेमें भी समरूप परमात्माको देखनेवाले होते हैं।
इहैव तैर्जित: सर्गो येषां
साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म
तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिता:॥ १९॥
जिनका अन्त:करण समतामें स्थित है,
उन्होंने इस जीवित-अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसारको जीत लिया है
अर्थात् वे जीवन्मुक्त हो गये हैं; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष
और सम है, इसलिये वे ब्रह्ममें ही स्थित हैं।
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य
नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्
ब्रह्मणि स्थित:॥ २०॥
जो प्रियको प्राप्त होकर हर्षित न हो और
अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह
स्थिर बुद्धिवाला मूढ़तारहित (ज्ञानी) तथा ब्रह्मको जाननेवाला मनुष्य ब्रह्ममें
स्थित है।
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा
विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा
सुखमक्षयमश्नुते॥ २१॥
बाह्यस्पर्श (प्राकृत वस्तुमात्रके
सम्बन्ध)-में आसक्तिरहित अन्त:करणवाला साधक अन्त:करणमें जो (सात्त्विक) सुख है,
उसको प्राप्त होता है। फिर वह ब्रह्ममें अभिन्नभावसे स्थित मनुष्य
अक्षय सुखका अनुभव करता है।
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव
ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते
बुध:॥ २२॥
क्योंकि हे कुन्तीनन्दन! जो
इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं,
वे आदि-अन्तवाले और दु:खके ही कारण हैं। अत: विवेकशील मनुष्य उनमें
रमण नहीं करता।
शक्नोतीहैव य: सोढुं
प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स
सुखी नर:॥ २३॥
इस मनुष्यशरीरमें जो कोई मनुष्य
शरीर छूटनेसे पहले ही काम-क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले वेगको सहन करनेमें समर्थ होता
है,
वह नर योगी है और वही सुखी है।
योऽन्त:सुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्-र्योतिरेव य:।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं
ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥ २४॥
जो मनुष्य केवल परमात्मामें सुखवाला
और केवल परमात्मामें रमण करनेवाला है तथा जो केवल परमात्मामें ज्ञानवाला है,
वह ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव करनेवाला (ब्रह्मरूप बना हुआ)
सांख्ययोगी निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होता है।
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषय:
क्षीणकल्मषा:।
छिन्नद्वैधा यतात्मान: सर्वभूतहिते
रता:॥ २५॥
जिनका शरीर
मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसहित वशमें है, जो
सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय
मिट गये हैं, जिनके सम्पूर्ण दोष नष्ट हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होते हैं।
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां
यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते
विदितात्मनाम्॥ २६॥
काम-क्रोधसे सर्वथा रहित,
जीते हुए मनवाले और स्वरूपका साक्षात्कार किये हुए सांख्ययोगियोंके
लिये सब ओरसे (शरीरके रहते हुए अथवा शरीर छूटनेके बाद) निर्वाण ब्रह्म परिपूर्ण
है।
स्पर्शान्कृत्वा
बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो:।
प्राणापानौ समौ कृत्वा
नासाभ्यन्तरचारिणौ॥ २७॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण:
।
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव
स:॥ २८॥
बाहरके पदार्थोंको बाहर ही छोड़कर
और नेत्रोंकी दृष्टिको भौंहोंके बीचमें (स्थित करके) तथा नासिकामें विचरनेवाले
प्राण और अपान वायुको सम करके जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अपने वशमें हैं, जो केवल मोक्ष-परायण
है तथा जो इच्छा, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित है, वह मुनि सदा मुक्त ही है।
भोक्तारं यज्ञतपसां
सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां
शान्तिमृच्छति॥ २९॥
मुझे सब यज्ञों और तपोंका भोक्ता,
सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्वर तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् (स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी) जानकर भक्त
शान्तिको प्राप्त हो जाता है।
ॐ तत्सदिति
श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
कर्मसन्न्यासयोगो नाम
पञ्चमोऽध्याय:॥ ५॥
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