॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ षष्ठोऽध्याय:
छठा अध्याय
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस
गोरखपुर से प्रकाशित गीता टीका "साधक संजीवनी" से ]
श्रीभगवानुवाच
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म
करोति य:।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न
चाक्रिय:॥ १॥
श्रीभगवान् बोले—कर्मफलका आश्रय न लेकर जो कर्तव्य-कर्म करता है, वही
संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्निका त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं होता तथा केवल
क्रियाओंका त्याग करनेवाला योगी नहीं होता।
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं
विद्धि पाण्डव।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति
कश्चन॥ २॥
हे अर्जुन! लोग जिसको संन्यास—ऐसा कहते हैं, उसीको तुम योग समझो; क्योंकि संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता।
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म
कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते॥
३॥
जो योग (समता)-में आरूढ़ होना चाहता
है,
ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी
योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्तिमें कारण कहा गया है।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न
कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी
योगारूढस्तदोच्यते॥ ४॥
कारण कि जिस समय न इन्द्रियोंके
भोगोंमें तथा न कर्मोंमें ही आसक्त होता है, उस
समय वह सम्पूर्ण संकल्पोंका त्यागी मनुष्य योगारूढ़ कहा जाता है।
उद्धरेदात्मनात्मानं
नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव
रिपुरात्मन:॥ ५॥
अपने द्वारा अपना उद्धार करे,
अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है
और आप ही अपना शत्रु है।
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य
येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव
शत्रुवत्॥ ६॥
जिसने अपने-आपसे अपने-आपको जीत लिया
है,
उसके लिये आप ही अपना बन्धु है और जिसने अपने-आपको नहीं जीता है,
ऐसे अनात्माका आत्मा ही शत्रुतामें शत्रुकी तरह बर्ताव करता है।
जितात्मन: प्रशान्तस्य परमात्मा
समाहित:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो:॥
७॥
जिसने अपनेपर विजय कर ली है,
उस शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता), सुख-दु:ख
तथा मान-अपमानमें निर्विकार मनुष्यको परमात्मा नित्यप्राप्त हैं।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो
विजितेन्द्रिय:।
युक्त इत्युच्यते योगी
समलोष्टाश्मकाञ्चन:॥ ८॥
जिसका अन्त:करण ज्ञान-विज्ञानसे
तृप्त है,
जो कूटकी तरह निर्विकार है, जितेन्द्रिय है और
मिट्टी, ढेले, पत्थर तथा स्वर्णमें
समबुद्धिवाला है—ऐसा योगी युक्त (योगारूढ़) कहा जाता है।
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु
।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥
९॥
सुहृद्,
मित्र, वैरी, उदासीन,
मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियोंमें तथा
साधु-आचरण करनेवालोंमें और पाप-आचरण करनेवालोंमें भी समबुद्धिवाला मनुष्य श्रेष्ठ
है।
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि
स्थित:।
एकाकी यतचित्तात्मा
निराशीरपरिग्रह:॥ १०॥
भोगबुद्धिसे संग्रह न करनेवाला,
इच्छारहित और अन्त:करण तथा शरीरको वशमें रखनेवाला योगी अकेला
एकान्तमें स्थित होकर मनको निरन्तर (परमात्मामें) लगाये।
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य
स्थिरमासनमात्मन:।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं
चैलाजिनकुशोत्तरम्॥ ११॥
शुद्ध भूमिपर,
जिसपर (क्रमश:) कुश, मृगछाला और वस्त्र बिछे
हैं, जो न अत्यन्त ऊँचा है और न अत्यन्त नीचा, ऐसे अपने आसनको स्थिर स्थापन करके।
तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा
यतचित्तेन्द्रियक्रिय:।
उपविश्यासने
युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥ १२॥
उस आसनपर बैठकर चित्त और
इन्द्रियोंकी क्रियाओंको वशमें रखते हुए मनको एकाग्र करके अन्त:करणकी शुद्धिके
लिये योगका अभ्यास करे।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं
स्थिर:।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं
दिशश्चानवलोकयन्॥ १३॥
काया, सिर और गलेको सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओंको न देखकर केवल अपनी नासिकाके
अग्रभागको देखते हुए स्थिर होकर बैठे।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थित:।
मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत
मत्पर:॥ १४॥
जिसका अन्त:करण शान्त है,
जो भयरहित है और जो ब्रह्मचारिव्रतमें स्थित है, ऐसा सावधान ध्यानयोगी मनका संयम करके मुझमें चित्त लगाता हुआ मेरे परायण
होकर बैठे।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी
नियतमानस:।
शान्तिं निर्वाणपरमां
मत्संस्थामधिगच्छति॥ १५॥
वशमें किये हुए मनवाला योगी मनको इस
तरहसे सदा (परमात्मामें) लगाता हुआ मुझमें सम्यक् स्थितिवाली जो निर्वाणपरमा
शान्ति है, उसको प्राप्त हो जाता है।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न
चैकान्तमनश्नत:।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव
चार्जुन॥ १६॥
हे अर्जुन! यह योग न तो अधिक
खानेवालेका और न बिलकुल न खानेवालेका तथा न अधिक सोनेवालेका और न बिलकुल न
सोनेवालेका ही सिद्ध होता है।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य
कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति
दु:खहा॥ १७॥
दु:खोंका नाश करनेवाला योग तो
यथायोग्य आहार और विहार करनेवालेका, कर्मोंमें
यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका तथा यथायोग्य सोने और जागनेवालेका ही सिद्ध होता है।
यदा विनियतं
चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
नि:स्पृह:
सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥ १८॥
वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें
अपने स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थोंसे नि:स्पृह हो
जाता है,
उस कालमें वह योगी है—ऐसा कहा जाता है।
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा
स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो
योगमात्मन:॥ १९॥
जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें
स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका
अभ्यास करते हुए वशमें किये हुए चित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी
है।
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं
योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि
तुष्यति॥ २०॥
योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें
निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आपसे अपने-आपको देखता
हुआ अपने-आपमें ही सन्तुष्ट हो जाता है।
सुखमात्यन्तिकं
यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:॥ २१॥
जो सुख आत्यन्तिक,
अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य है, उस सुखका जिस
अवस्थामें अनुभव करता है और जिस सुखमें स्थित हुआ यह ध्यानयोगी तत्त्वसे फिर कभी
विचलित नहीं होता।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते
नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि
विचाल्यते॥ २२॥
जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे
अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े
भारी दु:खसे भी विचलित नहीं किया जा सकता।
तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं
योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो
योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥ २३॥
जिसमें दु:खोंके संयोगका ही वियोग
है,
उसीको 'योग नामसे जानना चाहिये। (वह योग जिस
ध्यानयोगका लक्ष्य है), उस ध्यानयोगका अभ्यास न उकताये हुए
चित्तसे निश्चयपूर्वक करना चाहिये।
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा
सर्वानशेषत:।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य
समन्तत:॥ २४॥
संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण
कामनाओंका सर्वथा त्याग करके और मनसे ही इन्द्रियसमूहको सभी ओरसे हटाकर।
शनै: शनैरुपरमेद्बुद्ध्या
धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि
चिन्तयेत्॥ २५॥
धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा
(संसारसे) धीरे-धीरे उपराम हो जाय और मन (बुद्धि)-को परमात्मस्वरूपमें सम्यक् प्रकारसे
स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे।
यतो यतो निश्चरति
मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं
नयेत्॥ २६॥
यह अस्थिर और चंचल मन जहाँ-जहाँ
विचरण करता है, वहाँ-वहाँसे हटाकर इसको एक
परमात्मामें ही भलीभाँति लगाये।
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं
सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥
२७॥
जिसके सब पाप नष्ट हो गये हैं,
जिसका रजोगुण शान्त हो गया है तथा जिसका मन सर्वथा शान्त (निर्मल)
हो गया है, ऐसे इस ब्रह्मरूप बने हुए योगीको निश्चित ही
उत्तम (सात्त्विक) सुख प्राप्त होता है।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी
विगतकल्मष:।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं
सुखमश्नुते॥ २८॥
इस प्रकार अपने-आपको सदा परमात्मामें
लगाता हुआ पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त सुखका अनुभव कर लेता
है।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि
चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र
समदर्शन:॥ २९॥
सब जगह अपने स्वरूपको देखनेवाला और
ध्यानयोगसे युक्त अन्त:करणवाला (सांख्ययोगी) अपने स्वरूपको सम्पूर्ण प्राणियोंमें
स्थित देखता है और सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूपमें देखता है।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि
पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न
प्रणश्यति॥ ३०॥
जो (भक्त) सबमें मुझे देखता है और
मुझमें सबको देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य
नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
सर्वभूतस्थितं यो मां
भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि
वर्तते॥ ३१॥
मुझमें एकीभावसे स्थित हुआ जो
भक्तियोगी सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित मेरा भजन करता है,
वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मुझमें ही बर्ताव कर रहा है अर्थात्
वह नित्य-निरन्तर मुझमें ही स्थित है।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति
योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो
मत:॥ ३२॥
हे अर्जुन! जो (भक्त) अपने शरीरकी
उपमासे सब जगह मुझे समान देखता है और सुख अथवा दु:खको भी समान देखता है,
वह परम योगी माना गया है।
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन
मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि
चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥ ३३॥
अर्जुन बोले—हे मधुसूदन! आपने समतापूर्वक जो यह योग कहा है, मनकी
चंचलताके कारण मैं इस योगकी स्थिर स्थिति नहीं देखता हूँ।
चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि
बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव
सुदुष्करम्॥ ३४॥
कारण कि हे कृष्ण! मन (बड़ा ही)
चंचल,
प्रमथनशील, दृढ़ (जिद्दी) और बलवान् है। उसको
रोकना मैं (आकाशमें स्थित) वायुकी तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ।
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च
गृह्यते॥ ३५॥
श्रीभगवान् बोले—हे महाबाहो! यह मन बड़ा चंचल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है—यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु
हे कुन्तीनन्दन! अभ्यास और
वैराग्यके द्वारा इसका निग्रह किया जाता है।
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे
मति:।
वश्यात्मना तु यतता
शक्योऽवाप्तुमुपायत:॥ ३६॥
जिसका मन पूरा वशमें नहीं है,
उसके द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है। परन्तु उपायपूर्वक यत्न
करनेवाले तथा वशमें किये हुए मनवाले साधकको योग प्राप्त हो सकता है, ऐसा मेरा मत है।
अर्जुन उवाच
अयति: श्रद्धयोपेतो
योगाच्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं
कृष्ण गच्छति॥ ३७॥
अर्जुन बोले—हे कृष्ण! जिसकी साधनमें श्रद्धा है, पर जिसका
प्रयत्न शिथिल है, वह (अन्तसमयमें) अगर योगसे विचलित हो जाय
तो वह योगसिद्धिको प्राप्त न करके किस गतिको चला जाता है?
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मण:
पथि॥ ३८॥
हे महाबाहो! संसारके आश्रयसे रहित
और परमात्मप्राप्तिके मार्गमें मोहित अर्थात् विचलित—इस तरह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्न-भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो
नहीं हो जाता?
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषत:।
त्वदन्य: संशयस्यास्य छेत्ता न
ह्युपपद्यते॥ ३९॥
हे कृष्ण! मेरे इस सन्देहका सर्वथा
छेदन करनेके लिये आप ही योग्य हैं; क्योंकि
इस संशयका छेदन करनेवाला आपके सिवाय दूसरा कोई हो नहीं सकता।
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य
विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥ ४०॥
श्रीभगवान् बोले—हे पृथानन्दन! उसका न तो इस लोकमें और न परलोकमें ही विनाश होता है;
क्योंकि हे प्यारे! कल्याणकारी काम करनेवाला कोई भी मनुष्य
दुर्गतिको नहीं जाता।
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा
शाश्वती: समा:।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥
४१॥
वह योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करनेवालोंके
लोकोंको प्राप्त होकर और वहाँ बहुत वर्षोंतक रहकर फिर यहाँ शुद्ध (ममतारहित)
श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है।
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म
यदीदृशम्॥ ४२॥
अथवा (वैराग्यवान् योगभ्रष्ट)
ज्ञानवान् योगियोंके कुलमें ही जन्म लेता है। इस प्रकारका जो यह जन्म है,
यह संसारमें नि:सन्देह बहुत ही दुर्लभ है।
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते
पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ
कुरुनन्दन॥ ४३॥
हे कुरुनन्दन! वहाँपर उसको पिछले
मनुष्यजन्मकी साधन-सम्पत्ति (अनायास ही) प्राप्त हो जाती है। फिर उससे (वह) साधनकी
सिद्धिके विषयमें पुन: (विशेषतासे) यत्न करता है।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते
ह्यवशोऽपि स:।
जिज्ञासुरपि योगस्य
शब्दब्रह्मातिवर्तते॥ ४४॥
वह (श्रीमानोंके घरमें जन्म
लेनेवाला योगभ्रष्ट मनुष्य) भोगोंके परवश होता हुआ भी उस पहले मनुष्यजन्ममें किये
हुए अभ्यास (साधन)-के कारण ही (परमात्माकी तरफ) खिंच जाता है;
क्योंकि योग (समता)-का जिज्ञासु भी वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका
अतिक्रमण कर जाता है।
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी
संशुद्धकिल्बिष:।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां
गतिम्॥ ४५॥
परन्तु जो योगी प्रयत्नपूर्वक यत्न
करता है और जिसके पाप नष्ट हो गये हैं तथा जो अनेक जन्मोंसे सिद्ध हुआ है,
वह योगी फिर परम गतिको प्राप्त हो जाता है।
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि
मतोऽधिक:।
कर्मिभ्यश्चाधिको
योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥ ४६॥
(सकामभाववाले) तपस्वियोंसे भी योगी
श्रेष्ठ है, ज्ञानियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है
और कर्मियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है—ऐसा मेरा मत है। अत: हे अर्जुन! तू योगी हो जा।
योगिनामपि सर्वेषां
मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे
युक्ततमो मत:॥ ४७॥
सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो
श्रद्धावान् भक्त मुझमें तल्लीन हुए मनसे मेरा भजन करता है,
वह मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी है।
ॐ तत्सदिति
श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
आत्मसंयमयोगो नाम
षष्ठोऽध्याय:॥ ६॥
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