॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ सप्तमोऽध्याय:
सातवाँ अध्याय
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस
गोरखपुर से प्रकाशित गीता टीका "साधक संजीवनी" से ]
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमना:
पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय:।
असंशयं
समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥ १॥
श्रीभगवान्
बोले—हे पृथानन्दन! मुझमें आसक्त मनवाला, मेरे आश्रित
होकर योगका अभ्यास करता हुआ तू मेरे जिस समग्ररूपको नि:सन्देह जिस प्रकारसे जानेगा,
उसको (उसी प्रकारसे) सुन।
ज्ञानं
तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत:।
यज्ज्ञात्वा
नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥ २॥
तेरे लिये
मैं यह विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्णतासे कहूँगा, जिसको
जाननेके बाद फिर इस विषयमें जाननेयोग्य अन्य (कुछ भी) शेष नहीं रहेगा।
मनुष्याणां
सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि
सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥ ३॥
हजारों
मनुष्योंमें कोई एक सिद्धि (कल्याण)-के
लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले सिद्धों (मुक्त पुरुषों)-में कोई एक
ही मुझे यथार्थरूपसे जानता है।
भूमिरापोऽनलो
वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार
इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥ ४॥
अपरेयमितस्त्वन्यां
प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां
महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥ ५॥
पृथ्वी,
जल, तेज, वायु, आकाश (—ये पंचमहाभूत) और मन, बुद्धि
तथा अहंकार—इस प्रकार यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी यह अपरा
प्रकृति है; और
हे
महाबाहो! इस अपरा प्रकृतिसे भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी परा प्रकृतिको जान,
जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।
एतद्योनीनि
भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं
कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा॥ ६॥
सम्पूर्ण
प्राणियोंके उत्पन्न होनेमें अपरा और परा—इन
दोनों प्रकृतियोंका संयोग ही कारण है—ऐसा तुम समझो। मैं
सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ।
मत्त:
परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि
सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥ ७॥
इसलिये हे
धनंजय! मेरे सिवाय (इस जगत् का) दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी (कारण तथा कार्य) नहीं
है। जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई होती हैं,
ऐसे ही यह सम्पूर्ण जगत् मुझमें ही ओत-प्रोत है।
रसोऽहमप्सु
कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।
प्रणव:
सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु॥ ८॥
हे
कुन्तीनन्दन! जलोंमें रस मैं हूँ, चन्द्रमा और
सूर्यमें प्रभा (प्रकाश) मैं हूँ, सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव
(ओंकार), आकाशमें शब्द और मनुष्योंमें पुरुषत्व मैं हूँ।
पुण्यो
गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं
सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥ ९॥
पृथ्वीमें
पवित्र गन्ध मैं हूँ और अग्निमें तेज मैं हूँ तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें
जीवनीशक्ति मैं हूँ और तपस्वियोंमें तपस्या मैं हूँ।
बीजं मां
सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि
तेजस्तेजस्विनामहम्॥ १०॥
हे
पृथानन्दन! सम्पूर्ण प्राणियोंका अनादि बीज मुझे जान। बुद्धिमानोंमें बुद्धि और
तेजस्वियोंमें तेज मैं हूँ।
बलं बलवतां
चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो
भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥ ११॥
हे
भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! बलवानोंमें काम और रागसे रहित बल मैं हूँ और
प्राणियोंमें धर्मसे अविरुद्ध (धर्मयुक्त) काम मैं हूँ।
ये चैव
सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति
तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥ १२॥
(और तो
क्या हूँ—)
जितने भी सात्त्विक भाव हैं और जितने भी राजस तथा तामस भाव हैं,
वे सब मुझसे ही होते हैं—ऐसा उनको समझो।
परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं।
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि:
सर्वमिदं जगत्।
मोहितं
नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥ १३॥
किन्तु इन
तीनों गुणरूप भावोंसे मोहित यह सम्पूर्ण जगत् (प्राणिमात्र) इन गुणोंसे अतीत और
अविनाशी मुझे नहीं जानता।
दैवी
ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये
प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥ १४॥
क्योंकि
मेरी यह गुणमयी दैवी माया दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल
मेरे ही शरण होते हैं, वे इस मायाको तर
जाते हैं।
न मां
दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:।
माययापहृतज्ञाना
आसुरं भावमाश्रिता:॥ १५॥
परन्तु
मायाके द्वारा जिनका ज्ञान हरा गया है, वे
आसुर भावका आश्रय लेनेवाले और मनुष्योंमें महान् नीच तथा पाप-कर्म करनेवाले मूढ़
मनुष्य मेरे शरण नहीं होते।
चतुर्विधा
भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो
जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥ १६॥
हे
भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! पवित्र कर्म करनेवाले अर्थार्थी,
आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी—ये चार प्रकारके मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् मेरे शरण होते हैं।
तेषां
ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि
ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥ १७॥
उन चार
भक्तोंमें मुझमें निरन्तर लगा हुआ अनन्य भक्तिवाला ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त
श्रेष्ठ है; क्योंकि ज्ञानी भक्तको मैं
अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
उदारा:
सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थित: स
हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥ १८॥
पहले कहे
हुए सब-के-सब (चारों) ही भक्त बड़े उदार (श्रेष्ठ भाववाले) हैं। परन्तु ज्ञानी
(प्रेमी) तो मेरा स्वरूप ही है—ऐसा मेरा मत
है। कारण कि वह मुझसे अभिन्न है और जिससे श्रेष्ठ दूसरी कोई गति नहीं है, ऐसे मुझमें ही दृढ़ स्थित है।
बहूनां
जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव:
सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥ १९॥
बहुत
जन्मोंके अन्तिम जन्ममें अर्थात् मनुष्यजन्ममें सब कुछ परमात्मा ही हैं—इस प्रकार जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह
महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना:
प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।
तं तं
नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया॥ २०॥
परन्तु
उन-उन कामनाओंसे जिनका ज्ञान हरा गया है, ऐसे
मनुष्य अपनी-अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभावसे नियन्त्रित होकर उस-उस अर्थात्
देवताओंके उन-उन नियमोंको धारण करते हुए अन्य देवताओंके शरण हो जाते हैं।
यो यो यां
यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य
तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥ २१॥
जो-जो भक्त
जिस-जिस देवताका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवतामें ही मैं उसी
श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ।
स तया
श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च तत:
कामान्मयैव विहितान्हि तान्॥ २२॥
उस (मेरे
द्वारा दृढ़ की हुई) श्रद्धासे युक्त होकर वह मनुष्य उस देवताकी (सकामभावपूर्वक)
उपासना करता है और उसकी वह कामना पूरी भी होती है; परन्तु वह कामनापूर्ति मेरे
द्वारा ही विहित की हुई होती है।
अन्तवत्तु
फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो
यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥ २३॥
परन्तु उन
तुच्छ बुद्धिवाले मनुष्योंको उन देवताओंकी आराधनाका फल अन्तवाला (नाशवान्) ही
मिलता है। देवताओंका पूजन करनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे
ही प्राप्त होते हैं।
अव्यक्तं
व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:।
परं
भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥ २४॥
बुद्धिहीन
मनुष्य मेरे परम, अविनाशी और
सर्वश्रेष्ठ भावको न जानते हुए अव्यक्त (मन-इन्द्रियोंसे पर) मुझ सच्चिदानन्दघन
परमात्माको मनुष्यकी तरह शरीर धारण करनेवाला मानते हैं।
नाहं प्रकाश:
सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढोऽयं
नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥ २५॥
यह जो मूढ़
मनुष्यसमुदाय मुझे अज और
अविनाशी
ठीक तरहसे नहीं जानता (मानता), उन सबके सामने
योगमायासे अच्छी तरह ढका हुआ मैं प्रकट नहीं होता।
वेदाहं समतीतानि
वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि
च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥ २६॥
हे अर्जुन!
जो प्राणी भूतकालमें हो चुके हैं तथा जो वर्तमानमें हैं और जो भविष्यमें होंगे,
उन सब प्राणियोंको तो मैं जानता हूँ; परन्तु
मुझे (भक्तके सिवाय) कोई भी प्राणी नहीं जानता।
इच्छाद्वेषसमुत्थेन
द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि
सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥ २७॥
कारण कि हे
भरतवंशमें उत्पन्न शत्रुतापन अर्जुन! इच्छा (राग) और द्वेषसे उत्पन्न होनेवाले
द्वन्द्व-मोहसे मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसारमें (अनादिकालसे) मूढ़ताको अर्थात्
जन्म-मरणको प्राप्त हो रहे हैं।
येषां
त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता
भजन्ते मां दृढव्रता:॥ २८॥
परन्तु जिन
पुण्यकर्मा मनुष्योंके पाप नष्ट हो गये हैं, वे
द्वन्द्वमोहसे रहित हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं।
जरामरणमोक्षाय
मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म
तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥ २९॥
साधिभूताधिदैवं
मां साधियज्ञं च ये विदु:।
प्रयाणकालेऽपि
च मां ते विदुर्युक्तचेतस:॥ ३०॥
वृद्धावस्था
और मृत्युसे मुक्ति पानेके लिये जो मनुष्य मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं,
वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको और
सम्पूर्ण कर्मको जान जाते हैं। जो मनुष्य अधिभूत तथा अधिदैवके सहित और अधियज्ञके
सहित मुझे जानते हैं, वे मुझमें लगे हुए चित्तवाले मनुष्य
अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।
ॐ तत्सदिति
श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम
सप्तमोऽध्याय:॥
७॥
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