Tuesday, 31 December 2013

प्रार्थना


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

पौष कृष्ण, चतुर्दशी,मंगलवार, वि० स० २०७०

प्रार्थना 

 हे नाथ ! तुम्हीं सबके स्वामी तुम ही सबके रखवारे हो

तुम ही सब जग में व्याप रहे, विभु ! रूप अनेको धारे हो ।।

 

तुम ही नभ जल थल अग्नि तुम्ही, तुम सूरज चाँद सितारे हो

यह सभी चराचर है तुममे, तुम ही सबके ध्रुव-तारे हो ।।

 

हम महामूढ़  अज्ञानी जन, प्रभु ! भवसागर में पूर रहे

नहीं नेक तुम्हारी भक्ति करे, मन मलिन विषय में चूर रहे ।।

 

सत्संगति में नहि जायँ कभी, खल-संगति में भरपूर रहे

 सहते दारुण दुःख दिवस रैन, हम सच्चे सुख से दूर रहे ।।

 

तुम दीनबन्धु जगपावन हो, हम दीन पतित अति भारी है

है नहीं जगत में ठौर कही, हम आये शरण तुम्हारी है ।।

 

हम पड़े तुम्हारे है दरपर, तुम पर तन मन धन वारी है

अब कष्ट हरो हरी, हे हमरे हम निंदित निपट दुखारी है ।।

 

इस टूटी फूटी नैय्या को, भवसागर से खेना होगा

फिर निज हाथो से नाथ ! उठाकर, पास बिठा लेना होगा ।।

 

हा अशरण-शरण-अनाथ-नाथ, अब तो आश्रय देना होगा

हमको निज चरणों का निश्चित, नित दास बना लेना होगा ।।   

 

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, पद-रत्नाकर पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Monday, 30 December 2013

माधव ! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो, रख लो संग।


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

पौष कृष्ण, त्रयोदशी, सोमवार, वि० स० २०७०

 
      माधव ! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो, रख लो संग।

(राग जंगला-ताल कहरवा)

माधव ! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो, रख लो संग।

खूअ रिझान्नँगी मैं तुमको, रचकर नये-नये नित ढंग॥

नाचूँगी, गाऊं गी, मैं फिर खूब मचान्नँगी हुड़दंग।

खूब हँसान्नँगी हँस-हँस मैं, दिखा-दिखा नित तूतन रंग॥

धातु-चित्र पुष्पों-पत्रोंसे खूब सजान्नँगी सब अङङ्ग-

मधुर तुम्हारे, देख-देख रह जायेगी ये सारी दंग॥

सेवा सदा करूँगी मनकी, भर मनमें उत्साह-‌उमंग।

आनँदके मधु झटकेसे सब होंगी कष्टस्न-कल्पना भङङ्गस्न॥

तुम्हें पिलान्नँगी मीठा रस, स्वयं रहँूगी सदा असङङ्गस्न।

तुमसे किसी वस्तु लेनेका, आयेगा न कदापि प्रसङङ्गस्न॥

प्यार तुम्हारा भरे हृदयमें, उठती रहें अनन्त तरंग।

इसके सिवा माँगकर कुछ भी, कभी करूँगी तुम्हें न तंग॥

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, पद-रत्नाकर पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    
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Thursday, 5 December 2013

प्रार्थना -६-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

मार्गशीर्ष शुक्ल, तृतीया, गुरूवार, वि० स० २०७०

 प्रार्थना -६-

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हे प्रभो ! जैसे चन्द्रकान्तमणि चन्द्रकिरणोंका योग प्राप्त करते ही द्रवित होकर रस बहाने लगती है, वैसे ही हे अनन्त सुधाकरों को सुधा दान देने वाले सुधासागर ! मेरा हृदय चन्द्रकान्तमणि के सामान बना दो, जो तुम्हारे गुणनामरुपी सुधाभरी शशि-किरणों का संयोग पाते ही द्रवित होकर बहने लगे !

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हे प्रभों ! चुम्बक उसी लोहे को अपनी और खींचता है, जो निखालिस होकर उसके सामने आता है  । आप भी हे कृपासागर ! समस्त अभिमानों के मिश्रणसे रहित कर दीनहीन निखालिस लोहा बना दो, जो तुम्हारे आकर्षक कृष्णनामचुम्बक को पाते ही दौड़कर उसमे सदा के लिए चिपट जाय ।

 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, प्रार्थना पुस्तक से, पुस्तक कोड ३६८, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
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Wednesday, 4 December 2013

प्रार्थना -५-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

मार्गशीर्ष शुक्ल, द्वितीया, बुधवार, वि० स० २०७०

 प्रार्थना -५-

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हे प्रभो ! बगीचे के रंग-बिरंगे फूलों की सुन्दरता और सुगन्ध आकाशमें उड़नेवाले पक्षियोंकी चित्र-विचित्र वर्णों की बनावट और उनकी सुमधुर काकली, सरोवरोंमें और नदियों में इधर-से-उधर फुदकनेवाली मछलियों की मोहिनी सूरत और पुष्पोंके रस पर मंडराती हुई तितलियों की कलापूर्ण रचना, सब मनको हरण किये डालती हैं । यह सुन्दरता, सौरभ, कला और यह मीठा स्वर, हे सौन्दर्य और माधुर्यके अनन्त सागर ! तुम्हारे ही तो जलकण हैं । बस, हे अखिल सौन्दर्यमाधुर्य निधि ! ऐसी कृपा करों, जिससे मैं इस बात को सदा स्मरण रख सकूँ और प्रत्येक सौन्दर्य-माधुर्यकी बहती धाराका सहारा लेकर तुम्हारे अनन्त सौन्दर्य-माधुर्यका कुछ अंशों में तो उपभोग करूँ !

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हे प्रभों ! मेरे हृदय में ऐसी आग लगा दो, जो सदा बढती रहे । विषयों की सारी आसक्ति और कामना उसका ईधन बनकर उसे और भी प्रचण्ड कर दे कि फिर वह तुम्हारी दर्शन-सुधा-वृष्टिके बिना कभी बुझे ही नहीं !

हे प्रभो ! जैसे सूर्यकान्तमणि सूर्यकी किरणों का स्पर्श पाते ही जल उठती है, वैसे ही हे नाथ ! तुम्हारे भक्त साधुओं का जाने-अनजाने संग पाते ही मेरे मन में तुम्हारे प्रेम की आग भड़क उठे । हे अनन्त ब्रह्मांडो में अनन्त सूर्यों के प्रकाशक ! मेरे मन को सूर्यकान्तमणि के सदृश बना दो !...शेष अगले ब्लॉग में.

 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, प्रार्थना पुस्तक से, पुस्तक कोड ३६८, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
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Tuesday, 3 December 2013

प्रार्थना -४-


  ।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा, मंगलवार, वि० स० २०७०

 प्रार्थना -४-

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हे प्रभो ! मैं दिन-रात दुनियामें दुःखकी, शोककी, पीड़ाकी, निराशाकी, असफलता की, अपमानकी, अभावकी, अकालकी, अकीर्तिकी, दरिद्रताकी, वियोगकी, रोगकी और मृत्युकी डरावनी सूरतोंको देख-देखकर भयभीत होता हूँ । परन्तु हे मेरे चतुर खिलाड़ी ! हे मेरे विलक्षण बहरूपिये ! क्या यह सत्य नहीं है कि इन सब रूपों को धारण करके एक तुम्हीं तो मुझसे खेलने आते हों ? और क्या यह भी सत्य नहीं है कि मैं तुम्हें न पहचानने के कारण ही डरकर इनसे दूर भागना चाहता हूँ । प्यारे ! मुझे ऐसी दिव्य आँखे दे दो कि फिर तुम्हें पहचानने में मैं कभी भूलूँ ही नहीं ! चाहे तुम किसी भी रूप में आओं, मैं तुम्हे पहचान ही लूँ और तुम्हारे नये-नये खेलों को देख-देखकर वैसा ही खिलता रहूँ, जैसे सूर्य की किरणों को देखते हुए कमल खिल उठते हैं । दे डालों न प्रभों ! ऐसी पर्दों के भीतर की वस्तुको पहचाननेवाली पैनी नजर ! 

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हे प्रभो ! मैं माता के स्नेहसे, पिता के वात्सल्य से, मित्रकी मैत्री से, पत्नीके प्रेम से, संतान के प्यार से, सुकर्मों की कीर्ति से और लक्ष्मीकी मोहिनी से मुग्ध हो रहा हूँ । सदा अन्धा ही बना रहता हूँ, परन्तु ओ मेरे महामायावी ! क्या यह सत्य नहीं है कि तुम्हीं माँ बनकर स्नेह करते हो, पिता बनकर पालन करते हो, मित्र बनकर मैत्री करते हो, पत्नी बनकर प्रेम करते हो, संतान बनकर अपनी तोतली वाणी से मोहते हो, सुकर्म बनकर कीर्तिके रूप में आते हो और माँ लक्ष्मी बनकर मुझे अपना गुलाम बना लेते हो ? क्या यह स्नेह, वात्सल्य आदि की सारी धाराओं का मूल स्रोत्र तुम्हीं एकमात्र अखिल भावों के महान सागरसे ही निकल रहा है ? और क्या यह भाव-धारापुन: लौटकर तुम समुद्ररूप में ही मिलने को नहीं जा रही है ? ओं मेरे मनचोर ! बस इतनी कृपा करों कि मैं इन सबमे और इन सभी सम्बन्धों और भावों में तुम्हीं को देख-देखकर सदा मुग्ध होता रहूँ !...शेष अगले ब्लॉग में.

 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, प्रार्थना पुस्तक से, पुस्तक कोड ३६८, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Monday, 2 December 2013

प्रार्थना -३-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

मार्गशीर्ष कृष्ण, अमावस्या, सोमवार, वि० स० २०७०


 प्रार्थना -३-

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हे प्रभों ! कहाँ मैं क्षुद्र-सी परिधि में रहने वाला क्षुद्रतम कीट और कहाँ तुम अपने एक-एक रोम में अनन्त ब्रह्मांडो को धारण करनेवाले कल्पनातीत महामहिम महान ! मैं तुम्हारी थाह कहाँ पाऊ और कैसे पाऊँ ! परन्तु हे सर्वाधार ! यह तो सत्य है की अनन्त ब्रह्मांडों में से किसी एक क्षुद्रतम कीट होने पर भी हूँ तो तुम्हारे ही द्वार धारण किया हुआ न ? प्रभो ! बस, इस तत्व को कभी भूलने न पाऊँ और सदा सर्वदा अपने को तुम्हारे ही आधारपर स्थित देखूँ, अपने को तुम्हारेही अंदर समझूँ !

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हे प्रभो ! मैं दुखों से दबा हूँ, तापों से संतृप्त हूँ, अभावों से आकुल हूँ, व्यवस्थाओं से व्याकुल हूँ, अपमानों से पीड़ित हूँ, अपकीर्ति से कलंकित हूँ, व्याधियों से ग्रस्त हूँ और भयों से त्रस्त हूँ । मेरे सामने दुखी दुनिया में दूसरा कौन होगा ? सारे दुखों का पहाड़ मानों मुझ पर ही टूट पड़ा है । परन्तु हे मेरे प्रियतम ! क्या यह सच नहीं है की यह सब तुम्हारी भेजी हुई सौगात है । तुम्हारा ही प्रेम से दिया हुआ उपहार है ! इस सत्य को जानने पर भी हे मेरे प्यारे ! फिर मुझे इनकी प्राप्ति में असंतोष क्यों होता है ? तुम्हारी दी हुई प्रत्येक वस्तु में तुम्हारे ह्रदय के निर्मल प्रेम को देख कर, ओ मेरे ह्रदयधन ! तुम्हारे प्रत्येक विधान में तुम्हारा कोमल कर-स्पर्श पाकर मैं परम सुखी हो सकूँ । ऐसा प्रेमियों का-सा विलक्ष्ण ह्रदय दे दो नाथ !...शेष अगले ब्लॉग में.

 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, प्रार्थना पुस्तक से, पुस्तक कोड ३६८, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Sunday, 1 December 2013

प्रार्थना -२-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

मार्गशीर्ष कृष्ण, त्रयोदशी, रविवार, वि० स० २०७०

 
 प्रार्थना -२-

गत ब्लॉग से आगे...

हे प्रभो ! मैं अपनी झूठी ऐंठमें अकड़ा रहता हूँ और अपने को बलवान, धनवान, संतातिवान, जनवान, विद्वान और बुद्धिमान मानता हूँ । परन्तु हे सर्वेश्वर ! यह तो सत्य ही है की मुझमे जो कुछ भी है सो सब तुम्हारा ही तो है । मैं भी तुम्हारी सम्पति हूँ । हे सर्वलोकमहेश्वर ! बस, इस सत्य सिद्धांत को मैं कभी न भूलूँ, यह वरदान दे दो मेरे मालिक !

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हे प्रभो ! लोग कहते हैं जगत सब स्वप्नवत है,  तुम्हारी माया से बिना ही हुए यह सब कुछ दीखता है ; परन्तु माया या स्वप्न पुरुष के आश्रित होने के कारण यह तो, हे सत्यसंकल्प ! सत्य ही है न की सारा प्रपञ्च तुम्हारे संकल्प पर ही स्थित है । प्रपंचमें ही मैं भी हूँ, इसलिये मैं भी तुम्हारे संकल्प में हूँ । मेरे सरीखा कौन भग्यवान होगा, जिसे तुम अपने मन में रखते हो । बस, प्रभों ! मुझे तो अपने संकल्प में ही रखों और ऐसा बना दो की मैं सब कुछ भूलकर-दुनिया की सारी सुधि भुलाकर केवल यही याद रखूं की मैं तुम्हारे संकल्प में ही स्थित हूँ ।...शेष अगले ब्लॉग में.

 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, प्रार्थना पुस्तक से, पुस्तक कोड ३६८, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Ram