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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
पौष शुक्ल, चतुर्दशी, मंगलवार, वि० स० २०७०
मृत्युंजययोग -२-
गत ब्लॉग
से आगे.....निर्मल-चित
होकर सब प्राणियों में और आपने-आप में बाहर-भीतर सब जगह आकाश के समान सर्वत्र मुझ
परमात्मा को व्याप्त देखे । इस प्रकार ज्ञान-दृष्टी से जो सब प्राणियों को मेरा ही
रूप मानकर सबका सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मण भक्त,
सूर्य और चिंगारी, दयालु और क्रूर-सबमे सामान दृष्टी रखता है वही मेरे मन में
पंडित है । बारंबार बहुत दिनों तक सब प्राणियों में मेरी भावना करने से मनुष्य के
चित में स्पर्धा, असूया, तिरस्कार और अहंकार आदि दोष दूर हो जाते है । अपनी
दिल्लगी उड़ाने वाले घर के लोगों, ‘मैं उत्तम हूँ, यह नीच है’-इस प्रकार की
देहदृष्टि को और लोकलाज को छोड़कर कुत्ते, चण्डाल, गौ और गधेतक को पृथ्वी पर गिर कर
भगवद्भाव से साष्टांग प्रणाम करे ।
जबतक सब
प्राणियों में मेरा स्वरुप न दीखे, तब तक उक्त प्रकार से मन, वाणी और शरीरके
व्यवहारों द्वारा मेरी उपासना करता रहे ।इस तरह सर्वत्र परमात्मबुद्धि करने से उसे
सब कुछ ब्रह्ममय दीखने लगता है । ऐसी दृष्टी हो जाने पर जब समस्त संशयों का सर्वथा
नाश हो जाय, तब उसे कर्मों से उपराम हो जाना चाहिये । अथवा उपराम हो जाता है ।
उद्धव !
मन, वाणी और शरीर की समस्त वृत्तियों से और चेष्टाओंसे सब प्राणियों में मुझकों
देखना ही मेरे मत में सब प्रकार की मेरी प्राप्ति के साधनों में सर्वोत्तम साधन है
। शेष अगले ब्लॉग में...
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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