Tuesday, 14 January 2014

मृत्युंजययोग -२-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

पौष शुक्ल, चतुर्दशी, मंगलवार, वि० स० २०७०

मृत्युंजययोग -२-

 
गत ब्लॉग से आगे.....निर्मल-चित होकर सब प्राणियों में और आपने-आप में बाहर-भीतर सब जगह आकाश के समान सर्वत्र मुझ परमात्मा को व्याप्त देखे । इस प्रकार ज्ञान-दृष्टी से जो सब प्राणियों को मेरा ही रूप मानकर सबका सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मण भक्त, सूर्य और चिंगारी, दयालु और क्रूर-सबमे सामान दृष्टी रखता है वही मेरे मन में पंडित है । बारंबार बहुत दिनों तक सब प्राणियों में मेरी भावना करने से मनुष्य के चित में स्पर्धा, असूया, तिरस्कार और अहंकार आदि दोष दूर हो जाते है । अपनी दिल्लगी उड़ाने वाले घर के लोगों, ‘मैं उत्तम हूँ, यह नीच है’-इस प्रकार की देहदृष्टि को और लोकलाज को छोड़कर कुत्ते, चण्डाल, गौ और गधेतक को पृथ्वी पर गिर कर भगवद्भाव से साष्टांग प्रणाम करे ।

जबतक सब प्राणियों में मेरा स्वरुप न दीखे, तब तक उक्त प्रकार से मन, वाणी और शरीरके व्यवहारों द्वारा मेरी उपासना करता रहे ।इस तरह सर्वत्र परमात्मबुद्धि करने से उसे सब कुछ ब्रह्ममय दीखने लगता है । ऐसी दृष्टी हो जाने पर जब समस्त संशयों का सर्वथा नाश हो जाय, तब उसे कर्मों से उपराम हो जाना चाहिये । अथवा उपराम हो जाता है ।

उद्धव ! मन, वाणी और शरीर की समस्त वृत्तियों से और चेष्टाओंसे सब प्राणियों में मुझकों देखना ही मेरे मत में सब प्रकार की मेरी प्राप्ति के साधनों में सर्वोत्तम साधन है । शेष अगले ब्लॉग में...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    
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Ram