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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
पौष शुक्ल, अष्टमी, बुधवार, वि० स० २०७०
भक्त के लक्षण -५-
गत ब्लॉग में ...५.
भक्त किसी में
द्वेष नहीं करता या किसी पर क्रोध नहीं करता । किससे करे ? किस
पर करे ? सारा जगत तो उसे स्वामी का स्वरुप दीखता है । शिवजी महाराज
कहते है –
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ।
निज प्रभुमय देखहि जगत केहि सन करही बिरोध
।।
भक्त विनय, नम्रता और प्रेम की मूर्ति होता है ।
६. भक्त किसी वस्तु
की कामना नहीं करता,उसे वह वस्तु प्राप्त है जिसके सामने सब कुछ तुच्छ है,तब वह किसकी कामना करे
और क्यों करे ? वस्तुत: प्रेम में कोई कामना रहती ही नहीं । प्रेम में देना
है, वहाँ लेने का कोई नाम ही नहीं है । यही
काम और प्रेम का बड़ा भरी भेद है । काम में
प्रेमास्पद के द्वारा अपने सुख की चाह है और प्रेम में अपने द्वारा प्रेमास्पद को
सुखी बनाने की उत्कट इच्छा है । उसके लिए वही सबसे बड़ा सुख है,
जिससे उसके प्रेमास्पद को सुख मिले, चाहे वह अपने लिये कितने ही भयानक कष्ट का
कारण हो ।
प्रेमास्पद के सुख को देख कर प्रेमी की भयानक पीड़ा तुरंत महान सुख के रूप में
परिणत हो जाती है ।
अत एव भगवान का भक्त कभी कामी नहीं होता, वह तो चातक की भातीं मेघ रूप भगवान की और
सदा एकटक दृष्टि से निहारा करता है । बदल यदि न बरसे या जल के बदले ओले
बरसावे, तो भी वह प्रेम के नेम का पक्का पपीहा उधर से मुँह नही
मोड़ता ।
रटत रटत रसना लटी तृषा सूखि गये अंग ।
‘तुलसी’ चातक प्रेम को, नित नूतन रूचि रंग ।।
बरषि परुष पाहन पयद, पंख करे टुक टुक ।
‘तुलसी’ परी न चाहिये, चतुर चातकहि चूक ।।
यही दशा भक्त की है ।... शेष अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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