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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण , चतुर्दशी, शनिवार,
वि० स० २०७०
होली और उस पर हमारा कर्तव्य -3-
गत ब्लॉग से आगे ......कहा जाता है की भक्तराज प्रह्लादकी
अग्नि परीक्षा इसी दिन हुई थी । प्रहलाद के पिता
दैत्यराज हिरन्यकशिपु ने अपनी बहन ‘होलका’ से (जिसको भगवदभक्त के न सताने
तक अग्नि में न जलने का वरदान मिला था) प्रहलाद को जला देने के लिए कहा,
होलका राक्षसी उसे गोद में ले कर बैठ गयी,
चारो तरफ आग लगा दी गयी । प्रह्लाद भगवान के अनन्य भक्त थे, वे भगवान का नाम रटने
लगे । भगवतकृपा से प्रह्लाद के लिए अग्नि शीतल हो गयी और वरदान के शर्त के अनुसार
‘होलका’ उसमे जल मरी । भक्तराज प्रह्लाद
इस कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हुए और आकर पिता से कहने लगे
राम नामके जापक जन है तीनो लोकों में निर्भय ।
मिटते सारे ताप नाम की औषध से पक्का निश्चय ।।
नहीं मानते हो तो मेरे तन की और निहारो तात ।
पानी पानी हुई आग है जला नहीं किन्च्चित भी गात ।।
इन्ही भक्तराज और इनकी विशुद्ध भक्ति का स्मारक रूप यह होली
का त्यौहार है । आज भी ‘होलिका-दहन’ के समय प्राय: सब मिलकर एकस्वर में ‘भक्तप्रवर
प्रह्लाद की जय’ बोलते है । हिरान्यक्शुपू के राजकाल में अत्याचारनी होलका का दहन
हुआ और भक्ति तथा भगवान के अटल प्रताप से दृढव्रत भक्त प्रह्लाद की रक्षा हुई और
उन्हें भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन हुए ।
इसके सिवा इस दिन सभी वर्ण के लोग भेद छोड़कर परस्पर
मिलते-जुलते है । शायद किसी ज़माने में इसी विचारसे यह त्यौहार बना हो की सालभर के
विधि-निषेधमय जीवन को अलग-अलग अपने-अपने कामों में बिताकर इस एक दिन सब भाई परस्पर
गले लग कर प्रेम बढ़ावे । कभी भूलसे या किसी कारण से किसी का मनोमालिन्य हो गया हो
तो उसे इस दिन आनन्दके त्यौहार में एक साथ मिल-जुलकर हटा दे । असल में एक ऐसा
राष्ट्रीय उत्सव होना भी चाहिये की जिसमे सभी लोग छोटे-बड़े और रजा-रंक का भेद भूले
बिना किसी भी रूकावट के शामिल होकर परस्पर प्रेमालिंगन कर सके । यही होली का
एतिहासिक, पारमार्थिक और राष्ट्रीय तत्व
मालूम होता है । शेष अगले ब्लॉग में ......
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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