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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण, पूर्णिमा, रविवार,
वि० स० २०७०
होली और उस पर हमारा कर्तव्य -4-
गत ब्लॉग से आगे ......जो कुछ भी हो,इन सारी बातों पर
विचार करने से यही अनुमान होता है की यह त्यौहार असल में मनुष्यजाति की भलाईके लिए
ही चलाया गया था, परन्तु आजकल इसका रूप बहुत बिगड़ गया है । इस समय अधिकाश लोग इसको
जिस रूप में मनाते है उससे तो सिवा पाप बढ़ने और अधोगति होने के और कोई अच्छा फल
होता नहीं दीखता । आजकल क्या होता है ?
कई दिन पहले से स्त्रियाँ गंदे गीत
गाने लगती हैं, पुरुष बेशरम होकर गंदे अश्लील कबीर, धमाल, रसिया और फाग गाते है ।
स्त्रियों को देखकर बुरे-बुरे इशारे करते और आवाजे लगाते है । डफ बजाकर बुरी तरह
से नाचते है और बड़ी गंदी-गंदी चेष्टाये करते है । भाँग, गाँजा, सुलफा और मांजू आदि
पीते और खाते है । कही-कही शराब और वेश्याओतक की धूम मचती है ।
भाभी, चाची, साली, साले की स्त्री,
मित्र की स्त्री, पड़ोसिन और पत्नी आदिके साथ निर्लज्जता से फाग खेलते और गंदे-गंदे
शब्दों की बौछार करते है । राख, मिटटी और कीचड़ उछाले जाते है, मुह पर स्याही,
कारिख या नीला रंग पोत दिया जाता है । कपड़ो पर और दीवारों पर गंदे शब्द लिख दिए
जाते है, टोपियाँ और पगड़ियाँ उछाल दी जाती है, कही-कही पर जूतों के हार बनाकर पहने
और पहनाये जाते है, लोगों के घरों पर जाकर गंदी आवाजे लगायी जाती है ।
फल क्या होता है । गंदी और अश्लील
बोलचाल और गंदे व्यव्हार से ब्रहचर्य का नाश होकर स्त्री-पुरुष व्यभिचार के दोष से
दोषी बन जाते है । शेष अगले ब्लॉग में
......
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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