Saturday, 8 March 2014

एक लालसा -२-


     ।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

फाल्गुन शुक्ल, सप्तमी, शनिवार, वि० स० २०७०

एक लालसा -२-

गत ब्लॉग से आगे...... मुमुक्षा तो इससे पहले भी जागृत हो सकती है, परन्तु वह प्राय अत्यन्त तीव्र नहीं होती । ध्येय का निश्चय, वैराग्य, सात्विक, षट सम्पति आदि की प्राप्ति के बाद जो मुमुक्षत्व होता है वाही अत्यन्त तीव्र हुआ करता है ।

भगवान् श्री शंकराचार्य ने मुमुक्षत्व के तीव्र, मध्यम, मन्द और अतिमन्द ये चार भेद बतलाये है । अध्यात्मिक, अधिभौतिक और अधिदैविक भेद से त्रिविध होने पर भी प्रकार भेद से अनेकरूप दुखों के द्वारा सर्वदा पीड़ित और व्याकुल होकर जिस अवस्था में साधक विवेकपूर्वक परिग्रहमात्र को ही अनर्थकारी समझकर त्याग देता है, उसको तीव्र मुमुक्षा कहते है । त्रिविध ताप का अनुभव करने और सत-परमार्थ वस्तु को विवेक से जानने के बाद, मोक्ष के लिए भोगो का त्याग करें की इच्छा होने पर भी संसार में रहना उचित है या त्याग देना, इस प्रकार के संशय में झूलने को मध्यम मुमुक्षा कहते है । मोक्ष के लिए इच्छा होने पर भी यह समझना की अभी बहुत समय है, इतनी जल्दी क्या पड़ी है, संसार के कामों को तो कर ले, भोग भोग ले, आगे चल कर मुक्ति के लिए भी उपाय कर लेंगे । इस प्रकार की बुद्धि को मन्द मुमुक्षा कहते है  और जैसे किसी राह चलते मनुष्य को अक्समात रास्ते में बहुमूल्य मणि पड़ी दीखाई दी और उसने उसको उठा लिया, वैसे ही संसार के सुख-भोग भोगते-भोगते ही भाग्यवश कभी मोक्ष मिल जायगा तो मणि पाने वाले पथिक की भांति मैं भी धन्य हो जाऊँगा । इस प्रकार की मूढ़-मतिवालों की बुद्धि को अतिमन्द मुमुक्षा कहते है । ..शेष अगले ब्लॉग में


श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Ram