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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
आषाढ़ शुक्ल, षष्ठी, गुरुवार, वि० स० २०७१
भोगो के आश्रय से दुःख -७-
गत
ब्लॉग से आगे.......जो ठान ले तो महान-से-महान दुःख आने पर भी विचलित नही होता अथवा दूसरा
बड़ा सुन्दर तरीका यह है की उसे भगवान् का मंगल-विधान मान ले । भाई ! भगवान् हमसे
अधिक जानते है-ये तो मानना ही पड़ेगा । भगवान् को मानने वाला यदि भगवान् को एकमात्र
सर्वग्य न भी माने तो कम-से-कम इतना तो माने ही की अपने भगवान् को की वे हमसे
जायदा बुद्धिमान है और हमसे जायदा जाननेवाले है ।
इतना तो मानेगा ही और साफ़-साफ़
कहे तो हमसे अधिक हमारे हितेषी भी है, हमे क्या चाहिये-जानते भी है और उनके
नियन्त्र्ण के बिन कुछ होता नही तो ऐसी अवस्था में उनके द्वारा विधान किया हुआ जो
कुछ भी है, वह सारा-का-सारा हमारे लिए अत्यन्त मंगलमय है, इसमें जरा भी सन्देह की
चीज नही । तब फिर वह किस बात को लेकर अपने मन में दुखी होगा । यह बिलकुल ठीक
मानिये-सत्य की मैं चाहे मानू या न मानू, पर बात सत्य है-सबके लिए है, वह यह है की
दूसरी किसी परिस्थिति के बदलने से हमारी समस्या सुलझ जाएगी, हमारा मनोरथ सिद्ध हो
जायेगा, हमे सुख हो जायेगा-ये कभी होने का है ही नहीं । कभी नही होगा । नयी-नयी
परिस्थिति पैदा होती रहेंगी ।
एक अभाव की पूर्ती नये दस अभावों को उत्पन्न करती
रहेगी । अशान्ति के नये-नये कारण बनते रहेंगे । फिर उन कारणों को मिटाने की
नयी-नयी प्रवृतियाँ चलती रहेंगी । चित अशान्त रहेगा, काल मानता नही, उसका प्रवाह
रुकता नहीं । मृत्यु के समीप शरीर जाता रहेगा और बिना कुछ किये, अशान्त मन रहते
हुए, निरन्तर चिंतानल में जलते हुए हम भोगों में और विषयों में, राग-द्वेष में मन
रखते हुए मर जायेंगे और परिणाम होगा उस राग-द्वेष के अनुसार अगले जीवन की प्राप्ति
जो सम्भव है की सैदव दुखदायी हो तो बुद्धिमान मनुष्य तो यही मान ले की कम-से-कम की
भगवान् का मंगल विधान है ।.... शेष अगले ब्लॉग में ।
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस
गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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