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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
आषाढ़ शुक्ल, सप्तमी, शुक्रवार, वि० स० २०७१
भोगो के आश्रय से दुःख -८-
गत
ब्लॉग से आगे......यह बात समझ लेने की है की आत्मा जो हमारा वास्तविक स्वरुप है, उस स्वरुप
पर तो किसी भी बाहरी चीज का कोई प्रभाव है ही नही । हम जो भगवान् के अंश है सनातन,
उस भगवान् के सनातन अंश पर तो किसी का कोई प्रभाव है नही, उसको तो कोई दुख या सुख
से प्रभावित कर नही सकता । यहाँ की किसी चीज के जाने और आने से किसी के द्वारा
किये हुए मान और अपमान से, किसी के द्वारा की हुई निन्दा-स्तुति से, किसी के द्वारा
की हुई हमारी आशा की पूर्ती से और आशा भंग से, सद्व्यवहार से या दुर्व्यव्यहार से
भगवान् के सनातन अंश पर कोई असर पड़ता नही ।
वह घटता बढ़ता नही । वह ज्यों-का-त्यों
है तो यदि हम चेष्टा करके उसमे जो बद्ध्यता आ गयी है, बन्धन आ गया है, अकारण एक
क्लेश उतपन्न हो गया है-उसको मिटाने की चेष्टा उत्पन्न करे तब तो हमारी बुद्धिमानी
ठीक और उसको उसी बन्धन में, उसी क्लेश में रखते हुए नये-नये क्लेशों को सुलझाने के
लिए नये-नये क्लेशों को उत्पन्न करते रहे तो हमारे बन्धनों की गाँठ खुलेगी ? या
गाँठ और भी दृढ होगी । नये-नये कर्म उत्पन्न
होंगे, जो अनेक-अनन्त योनियों तक हमे अपना भुगतान करवाते रहेंगे । हम वहीँ रहेंगे-उसी
अशान्ति में, उसी दुःख में, उसी पीड़ा में उसी पीड़ा में, उसी चक्र में, उसी जलन में
।
दूसरा समझे न समझे, समझना अपने लिए
है । यदि हम समझ जाये । अपने लिए हम समझ जाये तो बन्धन की एक गाँठ तो खुली, दूसरों
की जो और गांठे है शायद उसको भी हम खोल सके । पर हम स्वयं बन्धन में है । हम स्वयं
अन्धे थे, एक अन्धा कैसे दुसरे अन्धे को ले जायेगा ? हम कहीं किसी को ले गए लाठी
पकडा कर तो आँखे हमारी है नही ।हम अन्धे किसी खड्ढे में गिरेंगे और सबको गिरा
देंगे अपने साथ । मनुष्य अकेला आया और अकेला जायेगा । अत: पहले अपने-आपको ठीक करने
का प्रयत्न करना चाहिये ।
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस
गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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