(१३)
श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति
(राग वागेश्री-तीन ताल)
राधे ! तू ही चित्तरंजनी, तू ही चेतनता मेरी।
तू ही नित्य आत्मा मेरी, मैं हूँ बस, आत्मा तेरी॥
तेरे जीवनसे जीवन है, तेरे प्राणोंसे हैं प्राण।
तू ही मन, मति, चक्षु, कर्ण, त्वक्, रसना, तू ही इन्द्रिय-घ्राण॥
तू ही स्थूल-सूक्ष्म इन्द्रियके विषय सभी मेरे सुखरूप।
तू ही मैं, मैं ही तू बस, तेरा-मेरा सबन्ध अनूप॥
तेरे बिना न मैं हूँ, मेरे बिना न तू रखती अस्तित्व।
अविनाभाव विलक्षण यह सबन्ध, यही बस, जीवन-तत्त्व॥
(१४)
श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति
(राग वागेश्री-तीन ताल)
तुम अनन्त सौन्दर्य-सुधा-निधि, तुममें सब माधुर्य अनन्त।
तुम अनन्त ऐश्वर्य-महोदधि, तुममें सब शुचि शौर्य अनन्त॥
सकल दिव्य सद्गुण-सागर तुम लहराते सब ओर अनन्त।
सकल दिव्य रस-निधि तुम अनुपम, पूर्ण रसिक, रसरूप अनन्त॥
इस प्रकार जो सभी गुणोंमें, रसमें अमित असीम अपार।
नहीं किसी गुण-रसकी उसे अपेक्षा कुछ भी किसी प्रकार॥
फिर मैं तो गुणरहित सर्वथा, कुत्सित-गति, सब भाँति गँवार।
सुन्दरता-मधुरता-रहित कर्कश कुरूप अति दोषागार॥
नहीं वस्तु कुछ भी ऐसी, जिससे तुमको मैं दूँ रसदान।
जिससे तुम्हें रिझाऊँ, जिससे करूँ तुम्हारा पूजन-मान॥
एक वस्तु मुझमें अनन्य आत्यन्तिक है विरहित उपमान।
’मुझे सदा प्रिय लगते तुम’-यह तुच्छ किंतु अत्यन्त महान॥
रीझ गये तुम इसी एक पर, किया मुझे तुमने स्वीकार।
दिया स्वयं आकर अपनेको, किया न कुछ भी सोच-विचार॥
भूल उच्चता भगवत्ता सब सत्ताका सारा अधिकार।
मुझ नगण्यसे मिले तुच्छ बन, स्वयं छोड़ संकोच-सँभार॥
मानो अति आतुर मिलनेको, मानो हो अत्यन्त अधीर।
तत्त्वरूपता भूल सभी नेत्रोंसे लगे बहाने नीर॥
हो व्याकुल, भर रस अगाध, आकर शुचि रस-सरिताके तीर।
करने लगे परम अवगाहन, तोड़ सभी मर्यादा-धीर॥
बढ़ी अमित, उमड़ी रस-सरिता पावन, छायी चारों ओर।
डूबे सभी भेद उसमें, फिर रहा कहीं भी ओर न छोर॥
प्रेमी, प्रेम, परम प्रेमास्पद-नहीं ज्ञान कुछ, हुए विभोर।
राधा प्यारी हूँ मैं, या हो केवल तुम प्रिय नन्दकिशोर॥
-नित्यलीलालीन श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार भाईजी
Sunday, 1 October 2017
षोडश गीत
If You Enjoyed This Post Please Take 5 Seconds To Share It.
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)
0 comments :
Post a Comment