(१५)
श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति
(राग भैरवी-तीन ताल)
राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और।
लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥
मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता।
कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥
पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व।
उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥
तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता।
केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥
एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती।
रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥
अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती।
सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥
सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा कोई भी अन्य।
कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥
जैसे मुझे नचाओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य।
यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥
(१६)
श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति
(राग भैरवी तर्ज-तीन ताल)
तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र, काठकी पुतली मैं, तुम सूत्रधार।
तुम करवाओ, कहलाओ, मुझे नचाओ निज इच्छानुसार॥
मैं करूँ, कहूँ, नाचूँ नित ही परतन्त्र, न कोई अहंकार।
मन मौन नहीं, मन ही न पृथक्, मैं अकल खिलौना, तुम खिलार॥
क्या करूँ, नहीं क्या करूँ-करूँ इसका मैं कैसे कुछ विचार ?
तुम करो सदा स्वच्छन्द, सुखी जो करे तुम्हें सो प्रिय विहार॥
अनबोल, नित्य निष्क्रिय, स्पन्दनसे रहित, सदा मैं निर्विकार।
तुम जब जो चाहो, करो सदा बेशर्त, न कोई भी करार॥
मरना-जीना मेरा कैसा, कैसा मेरा मानापमान।
हैं सभी तुम्हारे ही, प्रियतम ! ये खेल नित्य सुखमय महान॥
कर दिया क्रीड़नक बना मुझे निज करका तुमने अति निहाल।
यह भी कैसे मानूँ-जानूँ, जानो तुम ही निज हाल-चाल॥
इतना मैं जो यह बोल गयी, तुम ज्ञान रहे-है कहाँ कौन ?
तुम ही बोले भर सुर मुझमें मुखरा-से मैं तो शून्य मौन॥
-नित्यलीलालीन श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार - भाईजी
Monday, 2 October 2017
षोडश गीत
If You Enjoyed This Post Please Take 5 Seconds To Share It.
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)
0 comments :
Post a Comment