[३०]
राग जंगला—ताल कहरवा
माधव! मुझको भी तुम अपनी
सखी बना लो, रख लो संग।
खूब रिझाऊँगी मैं तुमको, रचकर नये-नये नित ढंग॥
नाचूँगी, गाऊँगी, मैं फिर खूब मचाऊँगी हुड़दंग।
खूब हँसाऊँगी हँस-हँसमैं, दिखा-दिखा नित नूतन रंग॥
धातु-चित्र
पुष्पों-पत्रोंसे खूब सजाऊँगी सब अङ्ग—
मधुर तुम्हारे, देख-देख रह जायेगी ये सारी दंग॥
सेवा सदा करूँगी मनकी, भर मनमें उत्साह-उमंग।
आनँदके मधु झटकेसे सब होंगी
कष्ट-कल्पना भङ्ग॥
तुम्हें पिलाऊँगी मीठा रस, स्वयं रहूँगी सदा असङ्ग।
तुमसे किसी वस्तु लेनेका, आयेगा न कदापि प्रसङ्ग॥
प्यार तुम्हारा भरे हृदयमें, उठती रहें अनन्त तरंग।
इसके सिवा माँगकर कुछ भी, कभी करूँगी तुम्हें न तंग॥
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