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तर्ज लावनी—ताल कहरवा
शुद्ध सच्चिदानन्द सनातन नित्यमुक्त
जो परम स्वतन्त्र।
कर बन्धन स्वीकार उदरमें, हुए यशोदाके परतन्त्र॥
जिनके अतुल स्वरूप-सिन्धुके
बिन्दु-बिन्दुमें विश्व अपार।
डूबे रहते नित्य, लाँघकर उसे कौन जा सकता पार ?
कभी नहीं हो सकता जिन असीमकी सीमाका
निर्देश।
नित्य अनन्त पूर्ण चिदघनका नहीं
प्राप्त हो सकता शेष॥
काम-क्रोध-लोभ-भय-क्रन्दन-बन्धनको वे
कर स्वीकार।
दिब्य बना देते इनको, कर निज स्वरूपमें अङ्गीकार॥
नहीं कल्पना, नहीं भावना-माया-नाट्य, न दम्भ अनित्य।
है यह रसमयका शुचि पावन
प्रेम-रस-सुधास्वादन सत्य॥
शुद्ध प्रेम-परवश हरिमें नित रहते साथ
विरोधी धर्म।
इसीलिये होते उनके सब विस्मयभरे
विलक्षण कर्म॥
ज्ञानी-मुक्त, सिद्ध-योगी—कोई भी थाह नहीं पाते।
श्याम-रूप-संदोह-महोदधिमें वे सहज डूब
जाते॥
मधुर दिव्य इस भगवद्-रसका वही परम रस
ले पाते।
केवल प्रेमपूर्ण सर्वार्पण कर जो उनके
हो पाते॥
इसीलिये सर्वार्पित-जीवन महाभाग वे
गोपी-ग्वाल।
दिव्य रस-सुधास्वादन करते रहते हैं
दुर्लभ सब काल॥
नहीं छोड़कर जाते व्रजको कभी रसिकवर वे
नँदलाल।
निज-जन सबको सुख देते वे, करते रहते नित्य निहाल॥
उन प्रेमीजनके पवित्र पद-रज-कणको है
अमित प्रणाम।
जिनके प्रेमाधीन हुए हरि करते लीला
मधुर ललाम॥
-नित्यलीलालीन भाईजी श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार
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