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तर्ज लावनी—ताल कहरवा
दिन-रजनी, तरु-लता, फूल-फल, सूर्य-सोम,
झिलमिल तारे।
प्रतिपल, प्रति पदार्थमें तुम मुझको देते रहते प्यारे॥
कितना दिया, दे रहे कितना, इसका मिलता ओर-न-छोर।
कितना ही दो, प्यास न बुझती, कहता सदा—‘और
दो, और’॥
कभी नहीं मन मेरा भरता, कभी न पूरी होती आस।
इतना देनेपर भी, कर अवहेला, रहता सदा उदास॥
सदा कोसता रहता तुमको, सदा बताता रहता दोष।
कभी नहीं कृतज्ञ होता मैं, कभी नहीं पाता संतोष॥
इतनेपर भी तुम, प्रभु! मुझको नहीं भूलते पलभर एक।
नहीं ऊबते, नहीं खीझते, देते रहते रख निज टेक॥
जरा दोष-अपराध न गिनते, बिना हेतु करते उपकार।
तुम-से-तुम ही अतुल मनस्वी, तुम-से-तुम्हीं अमित दातार॥
तुम जो कुछ भी देते, सबमें मधुर सुधारस भरा अनन्त।
है समर्थ कर देनेमें जगकी सारी
ज्वालाका अन्त॥
मन मेरा यदि तनिक अमृत-कण लेकर उसमें
रम जाता।
मिट जाते सब दु:ख, तुम्हारा सुखमय दर्शन पा जाता॥
अब तो तुम ही कृपा करो, तुम ही सब कुछ मनका हर लो।
अपनी मधुर सहज अनुकम्पासे मुझको अपना
कर लो॥
-नित्यलीलालीन भाईजी श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार
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