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राग गूजरी—तीन ताल
जो चाहो तुम, जैसे चाहो, करो वही तुम, उसी
प्रकार।
बरतो नित निर्बाध सदा तुम मुझको अपने
मन-अनुसार॥
मुझे नहीं हो कभी, किसी भी, तनिक दु:ख-सुखका कुछ भान।
सदा परम सुख मिले तुम्हारे मनकी सारी
होती जान॥
भला-बुरा सब भला सदा ही; जो तुम सोचो, करो विधान।
वही उच्चतम, मधुर-मनोहर, हितकर परम तुम्हारा दान॥
कभी न मनमें उठे, किसी भी भाँति, कहीं, कैसी भी
चाह।
उठे कदाचित् तो प्रभु उसे न करना पूरी, कर परवाह॥
प्यारे! यही प्रार्थना मेरी, यही नित्य चरणोंमें माँग—
मिटे सभी ‘मैं-मेरा’, बढ़ता रहे सतत अनन्य अनुराग॥
-नित्यलीलालीन भाईजी श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार
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