[ २८ ]
राग माँड़—ताल कहरवा
सत्-चित्-घन परिपूर्णतम, परम प्रेम-आनन्द।
विश्वेश्वर वसुदेवसुत, नँदनंदन गोविन्द॥
जयति यशोदातनय हरि, देवकि-सुवन ललाम।
राधा-उर-सरसिज-तपन, मधुरत अलि अभिराम॥
वाणी हो गुण-गान-रत, कर्ण श्रवण-गुण-लीन।
मन सुरूप-चिन्तन-निरत, तन सेवा-आधीन॥
पूर्ण समर्पित रहें नित, तन-मन-बुद्धि अनन्य।
सहज सफलता प्राप्तकर, हो मम जीवन धन्य॥
[ २९ ]
राग पीलू—ताल कहरवा
माधव! नित
मोहि दीजियै निज चरननि कौ ध्यान।
सकल ताप हर मधुर सुचि, आत्यंतिक सुख-खान॥
सब तजि सुचि रुचि सौं सदा भजन करौं
बसु जाम।
रहौं निरंतर मौन गहि, जपौं मधुरतम नाम॥
मन-इंद्रिय अनुभव करैं नित्य तुम्हारौ
स्पर्श।
मिटैं जगत के मान-मद-ममता-हर्ष-अमर्ष॥
रति-मति-गति सब एक तुम, बनैं अनंत-अनन्य।
तुम में भावभरे हृदय जुरि हो जीवन
धन्य॥
[ ३०]
राग जंगला—ताल कहरवा
माधव! मुझको
भी तुम अपनी सखी बना लो,
रख लो संग।
खूब रिझाऊँगी मैं तुमको, रचकर नये-नये नित ढंग॥
नाचूँगी, गाऊँगी, मैं फिर खूब मचाऊँगी हुड़दंग।
खूब हँसाऊँगी हँस-हँस मैं, दिखा-दिखा नित नूतन रंग॥
धातु-चित्र पुष्पों-पत्रोंसे खूब
सजाऊँगी सब अङ्ग—
मधुर तुम्हारे, देख-देख रह जायेगी ये सारी दंग॥
सेवा सदा करूँगी मनकी, भर मनमें उत्साह-उमंग।
आनँदके मधु झटकेसे सब होंगी कष्ट-कल्पना भङ्ग॥
तुम्हें पिलाऊँगी मीठा रस, स्वयं रहूँगी सदा असङ्ग।
तुमसे किसी वस्तु लेनेका, आयेगा न कदापि प्रसङ्ग॥
प्यार तुम्हारा भरे हृदयमें, उठती रहें अनन्त तरंग।
इसके सिवा माँगकर कुछ भी, कभी करूँगी तुम्हें न तंग॥
[ ३१ ]
राग आसावरी—तीन ताल
रसस्वरूप श्रीकृष्ण परात्पर, महाभावरूपा राधा।
प्रेम विशुद्ध दान दो, कर करुणा अति, हर सारी बाधा॥
सच्चा त्याग उदय हो, जीवन श्रीचरणोंमें अर्पित हो।
भोग जगत् की मिटे वासना, सब कुछ सहज समर्पित हो॥
लग जाये श्रीयुगलरूपमें मेरी अब ममता
सारी।
हो
अनन्य आसक्ति, प्रीति शुचि, मिटे
मोह-भ्रम-तम भारी॥
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