[ ४१ ]
दोहा
श्रीराधामाधव जुगल दिब्य रूप-गुन-खान।
अविरत मैं करती रहूँ प्रेम-मगन
गुन-गान॥
राधागोबिंद नाम कौ करूँ नित्य उच्चार।
ऊँचे सुर तें मधुर मृदु, बहै दृगन रस-धार॥
करि करुना या अधम पर, करौ मोय स्वीकार।
पर्यौ रहूँ नित चरन-तल, करतौ जै-जैकार॥
मैं नहिं देखूँ और कौं, मोय न देखैं और।
मैं नित देख्यौई करूँ, तुम दोउनि सब ठौर॥
[ ४२ ]
राग जंगला—तीन ताल
हे राधा-माधव! तुम
दोनों दो मुझको चरणोंमें स्थान।
दासी मुझे बनाकर रक्खो, सेवाका अवसर दो दान॥
मैं अति मूढ़, चाकरीकी चतुराईका न तनिक-सा ज्ञान।
दीन नवीन सेविकापर दो समुद उँडेल सनेह
अमान॥
रजकण सरस चरण-कमलोंका खो देगा सारा
अज्ञान।
ज्योतिमयी रसमयी सेविका मैं बन जाऊँगी
सज्ञान॥
राधा-सखी-मञ्जरीको रख सम्मुख मैं
आदर्श महान।
हो पदानुगत उसके, नित्य करूँगी मैं सेवा सविधान॥
झाड़ू दूँगी मैं निकुञ्जमें, साफ करूँगी पादत्रान।
हौले-हौले हवा करूँगी सुखद व्यजन ले सुरभित
आन॥
देखा नित्य करूँगी मैं तुम दोनोंकी
मोहनि मुसकान।
वेतन
यही, यही होगा बस, मेरा पुरस्कार निर्मान॥
0 comments :
Post a Comment