[ ४२ ]
राग जंगला—तीन
ताल
हे राधा-माधव! तुम दोनों दो मुझको चरणोंमें स्थान।
दासी मुझे बनाकर रक्खो,
सेवाका
अवसर दो दान॥
मैं अति मूढ़, चाकरीकी
चतुराईका न तनिक-सा ज्ञान।
दीन नवीन सेविकापर दो समुद उँडेल सनेह
अमान॥
रजकण सरस चरण-कमलोंका खो देगा सारा
अज्ञान।
ज्योतिमयी रसमयी सेविका मैं बन जाऊँगी
सज्ञान॥
राधा-सखी-मञ्जरीको रख सम्मुख मैं
आदर्श महान।
हो पदानुगत उसके,
नित्य
करूँगी मैं सेवा सविधान॥
झाड़ू दूँगी मैं निकुञ्जमें,
साफ
करूँगी पादत्रान।
हौले-हौले हवा करूँगी सुखद व्यजन ले
सुरभित आन॥
देखा
नित्य करूँगी मैं तुम दोनोंकी मोहनि मुसकान।
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